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YEHEYENEFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE वह उसे अधोगति में ले जाती है। अदत्तादान अपयश का कारण है, अनार्य पुरुषों द्वारा आचरित है। आर्य- श्रेष्ठ मनुष्य कभी अदत्तादान नहीं करते। यह छिद्र-प्रवेशद्वार, अन्तरअवसर, विधुर-अपाय एवं व्यसन-राजा आदि द्वारा उत्पन्न की जाने वाली विपत्ति का मार्गण करने वाला-उसका पात्र है। उत्सवों के अवसर पर मदिरा आदि के नशे में बेभान, ॥ असावधान तथा सोये हुए मनुष्यों को ठगने वाला, चित्त में व्याकुलता उत्पन्न करने और ॥ 卐 घात करने में तत्पर है तथा अशान्त परिणाम वाले चोरों द्वारा बहुमत-अत्यन्त मान्य है। यह
करुणाहीन कृत्य- निर्दयता से परिपूर्ण कार्य है, राजपुरुषों- चौकीदार ,कोतवाल, पुलिस आदि द्वारा इसे रोका जाता है। सदैव साधु-जनों-सत्पुरुषों द्वारा यह निन्दित है। प्रियजनों । तथा मित्रजनों में (परस्पर) फूट और अप्रीति उत्पन्न करने वाला है। यह राग और द्वेष की
बहुलता वाला है। यह बहुतायत से मनुष्यों को मारने वाले संग्रामों, स्वचक्र-परचक्रसम्बन्धी ॐ सम्बन्धी डमरों-विप्लवों, लड़ाई-झगड़ों, तकरारों एवं पश्चात्ताप का कारण है। दुर्गतिॐ पतन में वृद्धि करने वाला, भव-पुनर्भव- वारंवार जन्म-मरण कराने वाला, चिरकाल
सदाकाल से परिचित, आत्मा के साथ लगा हुआ-जीवों का पीछा करने वाला और परिणाम EE में-अन्त में दुःखदम्यी होता है।
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HOहिंसा का संस्कारः चोर के अगले भव में भी
{474) मया संता पुणो परलोग-समावण्णा णरए गच्छंति ते अणंतकालेण जइ णाम म कहिं विमणुयभावं लभंति णेगेहिं णिरयगइ-गमण-तिरिय-भव-सयसहस्स-परियट्टेहिं । ॥
तत्थ वि य भवंतऽणारिया णीय-कुल-समुप्पण्णा अणज्जा कूरा मिच्छत्तसुइपवण्णा य होंति एगंत-दंड-रुइणो वेवेंता कोसिकारकीडो व्व अप्पगं । अट्ठकम्मतंतु-घणबंधणेणं।
(प्रश्न. 1/3/सू.76) चोर (अपने दुःखमय जीवन का अन्त करते हुए) मर कर परलोक को प्राप्त होकर 卐 卐 नरक में उत्पन्न होते हैं। किसी प्रकार, अनेकों बार नरक गति, और लाखों बार तिर्यंच गति 卐 में जन्म-मरण करते-करते यदि मनुष्यभव पा लेते हैं तो वहां भी नीच कुल में उत्पन्न होते है
हैं और अनार्य होते हैं। वे अनार्य- शिष्टजनोचित आचार-विचार से रहित, क्रूर-नृशंसCE निर्दय एवं मिथ्यात्व के पोषक शास्त्रों को अंगीकार करते हैं। एकान्ततः हिंसा में ही उनकी
रुचि होती है। इस प्रकार रेशम के कीड़े के समान वे अष्ट कर्म रूपी तन्तुओं से अपनी ॐ आत्मा को प्रगाढ़ बन्धनों से जकड़ लेते हैं।
FFUSEFFEREEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/206