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● हिंसा की ही एक विधिः स्तेय/चोरी / अदत्तादान
(460)
वित्तमेव मतं सूत्रे प्राणा बाह्या शरीरिणाम् । तस्यापहारमात्रेण स्युस्ते प्रागेव घातिताः ॥
! मात्र से प्राणी के वे बाह्य प्राण पहले ही नष्ट हो जाते हैं । (अभिप्राय यह है कि मनुष्य धन
आगम में प्राणियों का बाह्य प्राण धन ही माना गया है। इसीलिए धन का हरण करने
(ज्ञा. 10/3/575)
(461)
एकस्यैकं क्षणं दुःखं मार्यमाणस्य जायते । सपुत्रपौत्रस्य पुनर्यावज्जीवमिते
धने ॥
को प्राणों से भी बढ़ कर मानते हैं। इसलिए धन के चुराये जाने पर मनुष्य को भारी कष्ट होता
है। यहां तक कि कितने ही मनुष्य तो धन के नष्ट हो जाने पर अतिशय सन्तप्त होकर प्राणों को भी त्याग देते हैं । इस प्रकार वह चौर्य कर्म महती हिंसा का कारण है ।)
जिस जीव की हिंसा की जाती है उसे चिरकाल तक दुःख नहीं होता, अपितु क्षण
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(है. योग. 2/68 )
भर के लिए होता है। मगर किसी का धन - हरण किया जाता है; तो उसके पुत्र, पौत्र और सारे परिवार का जिंदगी भर दुःख नहीं जाता, यानी पूरी जिंदगी तक उसके दुःख का घाव नहीं मिटता । [ अतः चोरी किसी के प्राण- वध से भी अधिक कष्टदायक होती है । ]
आस्तां स्तेयमभिध्यापि विध्याप्याग्निरिव त्वया । हरन् परस्वं तदसून् जिहीर्षन् स्वं हिनस्ति हि ॥
(सा. ध. 8 / 86 )
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! कर देना चाहिए। अर्थात् जैसे आग सन्ताप का कारण है, वैसे ही परधन की इच्छा भी
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की तो बात ही क्या, उसकी इच्छा को भी तुम्हें आग की तरह तत्काल शान्त
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卐 सन्ताप का कारण होती है। क्योंकि परद्रव्य को हरने वाला उसके प्राणों को हरना चाहता है
अतः वह अपना ही घात करता है ।
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[ जैन संस्कृति खण्ड /200
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