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(467) परद्रव्यग्रहार्तस्य तस्करस्यातिनिर्दया। गुरुं बन्धुं सुतान् हन्तुं प्रायः प्रज्ञा प्रवर्तते ॥
(ज्ञा. 10/6/578) जो चोर दूसरे के धन के ग्रहण में व्याकुल रहता है, उसकी अत्यन्त दुष्टबुद्धि प्रायः गुरु, हितैषी, मित्र आदि और पुत्रों के भी घात में प्रवृत्त होती है।
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परदव्वहरणमेदं आसवदारं खु बेंति पावस्स। सोगरियवाहपरदारिएहि चोरो हु पापदरो॥
(भग. आ. 859) यह परद्रव्य का हरण पाप के आने का द्वार कहा जाता है। मृग व पशु-पक्षियों का घात करने वाले और पर-स्त्रीगमन के प्रेमी जनों की अपेक्षा भी चोर अधिक पापीहिंसक होता है।
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अत्थम्मि हिदे पुरिसो उम्मत्तो विगयचेयणो होदि। मरदि व हक्कारकिदो अत्थो जीवं खु पुरिसस्स॥
(भग. आ. 853) दूसरे के द्वारा अपना धन हरे जाने पर मनुष्य पागल हो जाता है, उसकी चेतना (विवेक शक्ति) नष्ट हो जाती है। (यहां चेतना शब्द चेतना के भेद ज्ञानपर्याय अर्थ में है प्रयुक्त हुआ है अत: उसका ज्ञान नष्ट हो जाता है ऐसा अर्थ लेना चाहिए, क्योंकि चेतना का तो विनाश होता नहीं।) वह हाहाकार करके मर जाता है। ठीक ही कहा है- धन मनुष्य का प्राण है।
EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/202