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FFFFFFFFFFF जलेश्याएं होती हैं। स्वजनों के साथ संयोग होते हैं और परिग्रहवान् असीम-अनन्त सचित्त, अचित्त एवं मिश्र-द्रव्यों को ग्रहण करने की इच्छा करते हैं।
देवों, मनुष्यों और असुरों सहित इस त्रस-स्थावररूप जगत् में जिनेन्द्र भगवन्तोंम तीर्थंकरों ने (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) परिग्रह का प्रतिपादन किया है। (वास्तव में) परिग्रह के म
समान अन्य कोई पाश-फंदा, बन्धन नहीं है।
{446) संगणिमित्तं मारेइ अलियवयणं च भणइ तेणिक्कं । भजदि अपरिमिदमिच्छं सेवदि मेहुणमवि य जीवो॥
(भग. आ. 1119) परिग्रह के लिए मनुष्य प्राणियों का घात करता है। पराये द्रव्य को ग्रहण करने की इच्छा से उनका घात करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, अपरिमित तृष्णा रखता है और म स्त्री-सेवन (अब्रह्मचर्य) करता है।
{447) आदाणे णिक्खेवे सरेमणे चावि तेसि गंथाणं। उक्कस्सणे वेक्कसणे फालणपप्फोडणे चेव॥ छेदणबंधणवेढणआदावणधोव्वणादिकिरियासु। संघट्टणपरिदावणहणणादी होदि जीवाणं ॥
___ (भग. आ. 1153-1154) परिग्रह के ग्रहण करने, रखने, संस्कार करने, बाहर ले जाने, बन्धन खोलने, फाड़ने, झाड़ने, छेदने, बांधने, ढांकने, सुखाने, धोने, मलने आदि में जीवों का घात आदि होता ही है।
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(448) सच्चित्ता पुण गंथा वधंति जीवे सयं च दुक्खंति। पावं च तण्णिमित्तं परिगिण्हंतस्स से होई।
(भग. आ. 1156) दासी-दास, गाय-भैंस आदि सचित्त परिग्रह से जीवों का घात होता है और परिग्रही * स्वयं दुःखी होते हैं। उन्हें सावध कामों में लगाने पर वे जो पापाचरण करते हैं, उसका भागी 卐 उनका स्वामी भी होता है।
F FFFFFFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/194