________________
听听听听听听听听听听听听听听听听听听听
卐 कभी और कहीं जिसका अन्त नहीं आता, ऐसी अपरिमित एवं अनन्त तृष्णा रूपी महती है
इच्छा ही अक्षय एवं अशुभ फल वाले इस वृक्ष के मूल हैं। लोभ, कलि-कलह-लड़ाई
झगड़ा और क्रोधादि कषाय इसके महास्कन्ध हैं। चिन्ता, मानसिक सन्ताप आदि की म अधिकता से अथवा निरन्तर उत्पन्न होने वाली सैकडों चिन्ताओं से यह विस्तीर्ण शाखाओं ॐ वाला है। ऋद्धि, रस और साता रूप गौरव ही इसके विस्तीर्ण शाखाग्र-शाखाओं के 卐
अग्रभाग हैं । निकृति-दूसरों को ठगने के लिए की जाने वाली वंचना-ठगाई या कपट ही इस
वृक्ष के त्वचा-छाल, पत्र और पुष्प हैं। इनको यह धारण करने वाला है। काम-भोग ही इस ॐ वृक्ष के पुष्प और फल हैं। शारीरिक श्रम, मानसिक खेद और कलह ही इसका कम्पायमान
अग्रशिखर-ऊपरी भाग है।
{454) संगणिमित्तं कुद्धो कलहं रोलं करिज वेरं वा। पहणेज व मारेज व मरिजेज व तह य हम्मेज ॥
(भग. आ. 1147) परिग्रह के कारण मनुष्य क्रोध करता है, कलह करता है, विवाद करता है, वैर करता ॥ 卐 है, मारपीट करता है, दूसरों के द्वारा मारा जाता है, पीटा जाता है, या स्वयं मर जाता है। )
14551
जाए।
तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजियाणं संसिंचियाणं तिविधेण जा वि से तत्थ मत्ता भवति अप्पा वा बहुगा वा। से तत्थ गढिते चिट्ठति भोयणाए।
ततो से एगदा विप्परिसिठं संभूतं महोवकरणं भवति । तं पि से एगदा दायादा म विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति,, णस्सति वा से, 卐 विणस्सति वा से, अगार- दाहेण वा से डज्झति । इति से परस्सऽट्ठाए कूराई कम्माइं ' बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति।
(आचा. 1/2/3 सू. 79) वह परिग्रह में आसक्त हुआ मनुष्य, द्विपद (मनुष्य-कर्मचारी) और चतुष्पद (पशु 卐 आदि) का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है। उनको कार्य में नियुक्त करता है। फिर ॥ जधन का संग्रह-संचय करता है। अपने, दूसरों के और दोनों के सम्मिलित प्रयत्नों से (अथवा
अपनी पूर्वार्जित पूंजी, दूसरों का श्रम तथा बुद्धि-तीनों के सहयोग से) उसके पास अल्प या
बहुत मात्रा में धन-संग्रह हो जाता है। वह उस अर्थ में गृद्ध-आसक्त हो जाता है और भोग 卐 के लिए उसका संरक्षण करता है। NEFFEREYEYENEFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN
अहिंसा-विश्वकोश।1971