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HTTERYTEEYESTERNEYEESTYTEEEEE ' उनका वध करने की आज्ञा दे दी। तब पिता उनको छुड़ाना चाहता था, पर राजा उन्हें नहीं छोड़
रहा था। तब सब पुत्रों के विषय में समान भाव रखने वाला सेठ ज्येष्ठ पुत्र को ही छुड़ा पाता ट है। इससे उसकी शेष पांच पुत्रों के वध में अनुमति हो-ऐसा नहीं माना जा सकता। राजा श्रावक 卐 जैसा है, वणिक्पुत्र जीवनिकाय जैसे हैं, साधु उनके पिता जैसा है। समान रूप से पिता सबको छुड़ाना चाहता है, पर राजा नहीं छोड़ता है। इस परिस्थिति में सेठ का क्या दोष है?
[अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सेठ अपने सभी पुत्रों को छुड़ाना चाहता है, उसके बहुत प्रार्थना करने पर भी का * जब राजा उन्हें नहीं छोड़ता है, तब सब पुत्रों में समबुद्धि होता हुआ भी वह एक बड़े पुत्र को ही छुड़ा पाता है। इससे यह
नहीं कहा जा सकता कि उसकी ओर से अन्य पुत्रों के वध कराने में अनुमति रही है। ठीक इसी प्रकार, साधु श्रावक से
स्थूल व सूक्ष्म सभी जीवों के वध को छुड़ाना चाहता है, पर श्रावक जब समस्त प्राणियों के वध को छोड़ने में अपनी ॐ असमर्थता प्रकट करता है, तब वह उससे स्थूल प्राणियों के ही वध का प्रत्याख्यान कराता है। इससे समस्त प्राणियों में
समबुद्धि उस साधु के अन्य सूक्ष्म प्राणियों के वध-विषयक अनुमति का प्रसंग कभी भी नहीं प्राप्त हो सकता।]
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____ भगवं च णं उदाहु-संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं ॥ भवति-नो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वइत्तए, वयं णं अणुपुव्वेणं गुत्तस्स लिसिस्सामो, ते एवं संखं सावेंति, ते एवं संखं ठवयंति, ते एवं
संखं सोवाट्ठवयंति-नन्नत्थ अभिजोएणं गाहावतीचोरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं ) 卐 पाणेहिं निहाय दंडं, तंपि तेसिं कुसलमेव भवति।
(सू.कृ. 27/849) भगवान् गौतम स्वामी ने उदक पेढालपुत्र से कहा- आयुष्मन् उदक! जगत् में कई 卐 मनुष्य ऐसे होते हैं, जो साधु के निकट आ कर उनसे पहले ही इस प्रकार कहते हैं-'भगवन्! हम मुण्डित हो कर अर्थात्- समस्त प्राणियों को न मारने की प्रतिज्ञा लेकर गृहत्याग करके आगार-धर्म से अनगार-धर्म में प्रव्रजित होने (दीक्षा लेने) में अभी समर्थ नहीं हैं, किंतु हम क्रमशः साधुत्व (गोत्र) का अंगीकार करेंगे, अर्थात्-पहले हम स्थूल (स) प्राणियों की ॥ हिंसा का प्रत्याख्यान करेंगे, उसके पश्चात् सूक्ष्म प्राणातिपात (सर्व सावद्य) का त्याग करेंगे। तदनुसार वे मन में ऐसा ही निश्चय करते हैं और ऐसा ही विचार प्रस्तुत करते हैं।
तदनन्तर वे राजा आदि के अभियोग का आगार (छूट) रख कर 'गृहपति-चार-विमोक्ष 卐 न्याय' से त्रस प्राणियों को दण्ड देने का त्याग करते हैं। (प्रत्याख्यान कराने वाले निर्ग्रन्थ ) ॐ श्रमण यह जान कर कि यह व्यक्ति समस्त सावधों को नहीं छोड़ता है, तो जितना छोड़े उतना
ही अच्छा है, उसे त्रसप्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान कराते हैं।) वह (त्रस प्राणिवध का) CE त्याग भी उन (श्रमणोपासकों) के लिए अच्छा (कुशलरूप) ही होता है।
EYENEFFERENEFITFITYLEFEELEFERFEEEEEE* [जैन संस्कृति खण्ड/42
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