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नागधीकधाकधीकधी
(111)
सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं जलप्पवेसो य। अणयार भंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणि ॥
(मूला. 2/74) शास्त्रों के घात से मरना, विष-भक्षण करना, अग्नि में जल जाना, जल में प्रवेश कर (डूब कर) मरना और पापक्रियामय द्रव्य का सेवन करके मरना -ये मरण जन्म व मृत्यु की मा परम्परा को बढाने वाले कार्य हैं।
{112) आपगा-सागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम्। गिरिपातोऽग्निपातश्च, लोकमूढं निगद्यते ॥
(रलक. श्रा. 22) धर्मलाभ और कल्याण आदि की प्राप्ति की आशा से नदी या समुद्र आदि में स्नान 卐 करना, बालू या पत्थर आदि का ढेर लगाना, पर्वत से गिरना और अग्नि में जलना (सती 卐 होना) आदि लोक-मूढता कही जाती है।
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(किसी की भूख मिटाने के लिए भी आत्मवध अनुचित)
{113 दृष्ट्वाऽपरं पुरस्तादशनाय क्षामकुक्षिमायान्तम्। निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्माऽपि॥
(पुरु. 4/53/89) भोजन के लिये सामने आये हुए अन्य भूखे (मांसभक्षी व्यक्ति या पशु आदि) को भी सामने आया हुआ देख कर उसे अनुगृहीत करने की दृष्टि से अपने शरीर का मांस देने की
आतुरता के साथ अपना ही घात करना- यह भी कथमपि उचित नहीं है। (मांसभक्षी प्राणी के प्रति राग के कारण) उक्त कार्य (स्वयं का घात करना- प्राणवियोजित होना) 'हिंसा' की कोटि में ही आता है।)
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अहिंसाविश्वकोश।51)