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(343) म इह खलु पाईणं वा संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अप्पिच्छा अप्पारंभा ॥
अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा साहू, एगच्चातो पाणातिवायातो पडिविरता जावजीवाए
एगच्चातो अप्पडिविरता, जाव जे यावऽण्णे तहप्पकारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता 卐 परपाणपरितावणकरा कजंति ततो वि एगच्चातो पडिविरता एगच्चातो अप्पडिविरता।”
से जहाणामए समणोसासगा भवंति।........................... ते णं एयारूवेणं विहारेणं है विहरमाणा बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता आबाधंसि उप्पण्णंसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खाइंति, बहूई भत्ताई पच्चक्खाइत्ता
बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति, बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कंता जसमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति,
तं जहा-महिड्डिएसु महज्जुतिएसु जाव महासुक्खेसु, सेसं तहेव जाव एस ठाणे आरिए मजाव एगंतसम्मे साहू । तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिए।
(सू.कृ. 2/2/715) इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कई मनुष्य होते हैं, जैसे कि-वे अल्प इच्छा वाले, अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही होते हैं। वे धर्माचरण करते हैं, धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं (अथवा धर्म की अनुज्ञा देते हैं), यहां तक कि (यावत्) धर्मपूर्वक अपनी
जीविका चलाते हुए जीवन-यापन करते हैं। वे सुशील, सुव्रती, सुगमता से प्रसन्न हो जाने के क वाले और साधु (साधनाशील सज्जन) होते हैं। एक ओर वे किसी (स्थूल एवं संकल्पी) का प्राणातिपात से जीवनभर विरत होते हैं तथा दूसरी ओर किसी (सूक्ष्म एवं आरम्भी) प्राणातिपात से निवृत्त नहीं होते, (इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से
कथंचित् स्थूल रूप से) निवृत्त और कथंचित् (सूक्ष्म रूप से) अनिवृत्त होते हैं, ये और इसी ॐ प्रकार के अन्य बोधिनाशक एवं अन्य प्राणियों को परिताप देने वाले जो सावद्यकर्म ॥ * (नरकादिगमन के कारणभूत यंत्रपीड़नादि कर्मादानरूप पापव्यवसाय) हैं उनसे निवृत्त होते है।
हैं, दूसरी और कतिपय (अल्पसावद्य) कर्मों-व्यवसायों से वे निवृत्त नहीं होते। जैसा कि में उनके नाम से विदित है, (इस मिश्रस्थान के अधिकारी) श्रमणोपासक (श्रमणों के उपासकॐ श्रावक) होते हैं। ................वे इस प्रकार के आचरण पूर्वक जीवनयापन (विचरण) 卐 * करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय (श्रावक व्रतों का) पालन करते हैं। यों श्रावक
व्रतों की आराधना करते हुए रोगादि कोई बाधा उत्पन्न होने पर या न होने पर भी बहुत लम्बे दिनों तक का भक्त-प्रत्याख्यान (अनशन) करते हैं। वे चिरकाल तक का भक्त प्रत्याख्यान "
EFERENESSURESHEESE FFFFFF [जैन संस्कृति खण्ड/158
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