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पंचहिं ठाणेहिं जीवा सोगतिं गच्छंति, तं जहा - पाणाति वातवेरमणेणंजाव
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筑 (मुसावाय - वेरमणेणं, अदिण्णादाणवेरमणेणं, मेहुणवेरमणेणं), परिग्गहवेरमणेणं ।
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(ठा. 5/1/17)
पांच कारणों से जीव सुगति में जाते हैं। जैसे
1. प्राणातिपात के विरमण से, 2. मृषावाद के विरमण से, 3. अदत्तादान के विरमण
से, 4. मैथुन के विरमण से, और 5. परिग्रह के विरमण से ।
O अहिंसा से सातावेदनीय (सुखदायी) कर्म का बन्ध
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सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्योगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं ?
गोमा ! पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए, एवं जहा सत्तमसए दुस्समा - उ (छट्ठ)
कद्देस जाव अपरियावणयाए (स. 7 उं. 6 सु. 24) सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए 卐 कम्सस्स उदएणं सायावेयणिज्जकम्मा जाव पयोगबंधे ।
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से सातावेदनीय कर्मशरीर प्रयोगबन्ध होता है, यहां तक कहना चाहिए ।
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(व्या. प्र. 8 / 9/100) [प्र.] भगवन्! सातावेदनीयकर्मशरीर-प्रयोगबन्धन किस कर्म के उदय से होता है?
[उ.] गौतम ! प्राणियों पर अनुकम्पा करने से, भूतों (चार स्थावर जीवों) पर
अनुकम्पा करने से इत्यादि, जिस प्रकार ( भगवती सूत्र के) सातवें शतक के दुःषम नामक
छठे उद्देशक (सू. 24 ) में कहा है, उसी प्रकार यहां भी, यावत्-प्राणों, भूतों जीवों और
सत्त्वों को परिताप उत्पन्न न करने से तथा सातावेदनीय कर्मशरीर-प्रयोग नामकर्म के उदय 卐
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[ जैन संस्कृति खण्ड / 156
(341)
कहं णं भंते! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कज्जंति ?
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गोयमा ! पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए, बहूणं
पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाएक
अपिट्टणयाए अपरितावणयाए, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सातावेदणिजा कम्मा कज्जंति ।
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(व्या. प्र. 7/6/24)
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