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(374)
अहिंसैकाऽपि यत्सौख्यं कल्याणमथवा शिवम् ।
दत्ते तद्देहिनां नायं तपः श्रुतयमोत्करः ॥
(375)
अहिंसैव शिवं सूते दत्ते च त्रिदिवश्रियम् । अहिंसैव हितं कुर्याद् व्यसनानि निरस्यति ॥
(376)
किन्त्वहिंसैव भूतानां मातेव हितकारिणी । तथा रमयितुं कान्ता विनेतुं च सरस्वती ॥
CLEFELD
(ज्ञा. 8 / 46 / 518 )
यह अहिंसा अकेली ही जीवों को जो सुख, कल्याण वा अभ्युदय देती है, उसे तप, स्वाध्याय और यम-नियमादि नहीं दे सकते हैं, क्योंकि धर्म के समस्त अङ्गों में अहिंसा ही एकमात्र प्रधान है।
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यह अहिंसा ही मुक्ति को उत्पन्न करती है तथा स्वर्ग की लक्ष्मी को देती है। अहिंसा ही आत्मा का हित करती है तथा समस्त कष्टरूप आपदाओं को नष्ट करती है।
(ज्ञा. 8/32/504)
(ज्ञा. 8 / 49 / 521 )
यह अहिंसा ही है, जो जीवों के लिए माता के समान रक्षा करने वाली, पत्नी के समान चित्त को आनन्द देने वाली है तथा सदुपदेश देने वाली सरस्वती के समान है।
(377)
सव्वसत्ताण अहिंसादिलक्खणो धम्मो पिता, रक्खणत्तातो ।
(378)
अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं ।
(नंदी. चू. 1)
अहिंसा, सत्य आदि धर्म सब प्राणियों का पिता है, क्योंकि वही सब का रक्षक है।
( आचा. 1/3/4/129)
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शस्त्र (= हिंसा) एक से एक बढ़ कर है । परन्तु अशस्त्र (= हिंसा) एक-से-एक
बढ़
कर नहीं है, अर्थात् अहिंसा की साधना से बढ़ कर श्रेष्ठ दूसरी कोई साधना नहीं है। 編卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
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[ जैन संस्कृति खण्ड / 170
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