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HEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng 卐 हिंसा एवं पाप से युक्त हो, जो भेद-फूट उत्पन्न करने वाला हो, जो विकथाकारक हो-स्त्री :
आदि से सम्बन्धित चारित्रनाशक या अन्य प्रकार से अनर्थ का हेतु हो, जो निरर्थक वाद या कलह का कारक हो अर्थात् जो वचन निरर्थक वाद-विवाद रूप हो और जिससे कलह म उत्पन्न हो, जो वचन अनार्य हो-अनाड़ी लोगों के योग्य हो-आर्य पुरुषों के बोलने योग्य नम 卐 हो अथवा अन्याययुक्त हो, जो अन्य के दोषों को प्रकाशित करने वाला हो, विवादयुक्त हो,
दूसरों की विडम्बना-फजीहत करने वाला हो, जो विवेकशून्य जोश और धृष्टता से परिपूर्ण है।
हो, जो निर्लज्जता से भरा हो, जो लोक-जनसाधारण या सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय हो, ऐसा 卐 वचन नहीं बोलना चाहिए।
(412) दुद्दिठं दुस्सुयं अमुणियं, अप्पणो थवणा परेसु जिंदा; ण तंसि मेहावी, ण तंसि धण्णो, ण तंसि पियधम्मो, ण तंसि कुलीणो, ण तंसि दाणवई, ण तंसि सूरो,
ण तंसि पडिरूवो, ण तंसि लट्ठो, ण पंडिओ, ण बहुस्सुओ, ण विय तंसि तवस्सी, 卐 जण यावि परलोयणिच्छयमई असि, सव्वकालं जाइ-कुल-रूव-वाहि-रोगेण वाविक जं होई वजणिजं दुहओ उवयारमइक्कंतं एवंविहं सच्चं वि ण वत्तव्वं।
(प्रश्न. 2/2/सू.120) जो घटना भलीभांति स्वयं न देखी हो, जो बात सम्यक् प्रकार से सुनी न हो, जिसे ठीक तरह-यथार्थ रूप में जान नहीं लिया हो, उसे या उसके विषय में बोलना नहीं चाहिए।
इसी प्रकार, अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा भी (नहीं करनी चाहिए), यथा卐 तू बुद्धिमान् नहीं है-बुद्धिहीन है, तू धन्य-धनवान् नहीं-दरिद्र है, तू धर्मप्रिय नहीं है, तू 卐 ॐ कुलीन नहीं, तू दानपति-दानेश्वर नहीं है, तू शूरवीर नहीं है, तू सुन्दर नहीं है, तू भाग्यवान्
नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत-अनेक शास्त्रों का ज्ञाता नहीं है, तू तपस्वी भी नहीं है,
तुझमें परलोक-सम्बन्धी निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं है, आदि। अथवा जो वचन सदाम सर्वदा जाति (मातृपक्ष), कुल (पितृपक्ष), रूप (सौन्दर्य), व्याधि (कोढ आदि बीमारी),卐
रोग (ज्वरादि) से सम्बन्धित हो, (किन्तु) जो पीडाकारी या निन्दनीय होने के कारण वर्जनीय हो-न बोलने योग्य हो, अथवा जो वचन द्रोह-कारक अथवा द्रव्य-भाव से आदर ज एवं उपचार से रहित हो-शिष्टाचार के अनुकूल न हो अथवा उपकार का उल्लंघन करने 卐वाला हो (अर्थात् अपकार/अहित करने वाला हो), इस प्रकार का तथ्य-सद्भूतार्थ वचन ॐ भी नहीं बोलना चाहिए।
ELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/182
मनकामन
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