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FFERSEENESEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEP 卐 (हेतु, दृष्टांत आदि के द्वारा) भली-भांति समझाए, किन्तु कर्कश वचन का प्रयोग न करे।
कहीं भी उस (प्रश्रकर्ता की) की भाषा की हिंसा (तिरस्कार) न करे (अर्थात् प्रश्रकर्ता के बोलने पर उसे तिरस्कृत न करे)। शीघ्र समाप्त होने वाली बात को (अधिक) लंबा न करे।
O हितकारी भाषणः तपस्वी/सन्त का स्वभाव
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{428} अनेकजन्मजक्लेशशुद्ध्यर्थं यस्तपस्यति। सर्वं सत्त्वहितं शश्वत्स बूते सूनृतं वचः॥
(ज्ञा. 9/4/534) जो मुनि अनेक जन्मों में उत्पन्न क्लेशों (दुःखों) की शांति के लिए तपश्चरण करता है है, वह हमेशा प्राणियों के सर्वथा हित करने वाले सत्यवचन को ही बोलता है।
{429) सन्तो हि हितभाषिणः।
(उ.प्र. 68/325)
सत्पुरुष हित का उपदेश देते हैं।
O हिंसा-दोष से अस्पृष्टः गुरु का अप्रिय उपदेश-वचन
{430) हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम्॥
__ (पुरु. 4/64/100) सभी प्रकार के 'असत्य' वचनों के मूल कारण वक्ता के अन्तरंग प्रमाद/कषाय होते हैं- ऐसा निर्देश शास्त्रों में है, इसलिए (गुरु आदि द्वारा कषाय-रहित होकर, जन-कल्याण के उद्देश्य से) हेय-उपादेय आदि विषयों का निरूपण करना (भले ही वे श्रोताओं को
अप्रिय या पीडाकारक प्रतीत हों) 'असत्य' की कोटी में नहीं आता (क्योंकि उपदेश-दायक *गुरु के मन में प्रमाद व कषाय नहीं हैं, अपितु शिष्य-हित का ही उद्देश्य है)। EFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN
अहिंसा-विश्वकोश।1871