________________
FFFFFFFFFFFFFFFFFFFERSEEEEEEEEEEE
(366) तन्नास्ति जीवलोके जिनेन्द्रदेवेन्द्रचक्रकल्याणम्। यत्प्राप्नुवन्ति मनुजा न जीवरक्षानुरागेण ॥
(ज्ञा. 8/55/528) ____ इस जीव-लोक में (जगत् में) मनुष्य जीवरक्षा के अनुराग से समस्त कल्याणरूप पद को प्राप्त होते हैं। तीर्थकर, देवेन्द्र या चक्रवर्ती- इनमें से कोई भी पद ऐसा नहीं है, जिसे प्राणी-रक्षक (दयावान्) व्यक्ति नहीं पा सकता। अर्थात् अहिंसा (दया) सर्वोत्तम पद की देने वाली है।
{367) श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च। "अहिंसालक्षणो धर्मस्तद्विपक्षश्च पातकम्"॥
(ज्ञा. 8/30/502) समस्त मतों के समस्त शास्त्रों में यही सुना जाता है कि अहिंसालक्षण तो धर्म है और इसका प्रतिपक्षी हिंसा करना पाप है।
如明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明
{368) अहिंसैव जगन्माताऽहिंसैवानन्दपद्धतिः। अहिंसैव गतिः साध्वी श्रीरहिंसैव शाश्वती॥
(ज्ञा. 8/31/503) अहिंसा ही तो जगत् की माता है क्योंकि यही समस्त जीवों की प्रतिपालना करने वाली है। अहिंसा ही आनन्द की सन्तति अर्थात् परम्परा है। अहिंसा ही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी है। जगत् में जितने उत्तमोत्तम गुण हैं, वे सब इस अहिंसा में ही समाहित हैं।
1369) जन्मोग्रभयभीतानामहिसैवौषधिः परा। तथाऽमरपुरीं गन्तुं पाथेयं पथि पुष्कलम्॥
(ज्ञा. 8/48/520) इस संसाररूप तीव्र भय से भयभीत होने वाले जीवों के लिए यह अहिंसा ही एक परम औषधि है, क्योंकि यह सब का भय दूर करती है। यह अहिंसा ही स्वर्ग जाने वालों के
लिये मार्ग में पुष्टिकारक प्रचुर पाथेयस्वरूप (भोजनादिकी सामग्री) सिद्ध होती है। 卐 REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET
[जैन संस्कृति खण्ड/168