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{363) विरया वीरा समुट्ठिया कोहाकायरियाइपीसणा। पाणे ण हणंति सव्ववो पावाओ विरयाऽभिणिव्बुडा॥
__ (सू.कृ. 1/2/1/12) वीर वे हैं जो (हिंसा आदि से) विरत है, संयम में उपस्थित हैं, क्रोध, माया आदि कषायों का चूर्ण करने वाले हैं, जो सर्वशः प्राणियों की हिंसा नहीं करते, जो पाप से विरत हैं और उपशान्त हैं।
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यथा यथा हृदि स्थैर्य करोति करुणा नृणाम्। तथा तथा विवेकश्रीः परां प्रीतिं प्रकाशते ॥
(ज्ञा. 8/54/526) पुरुषों के हृदय में जैसे-जैसे करुणाभाव स्थिरता को प्राप्त करता है, वैसे-वैसे विवेक-रूपी लक्ष्मी उससे परम प्रीति प्रकट करती रहती है।
[अर्थात् करुणा/दया व्यक्ति में विवेक-ज्योति को समृद्ध करती है।]
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{365) अन्ययोगव्यवच्छेदादहिंसा श्रीजिनागमे। परैश्च योगमात्रेण कीर्तिता सा यदृच्छया॥
__ (ज्ञा. 8/54.1/527) जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग में तो अहिंसा अन्ययोगव्यवच्छेद से कही गई है अर्थात् अन्य मतों में ऐसी अहिंसा का योग (वर्णन) ही नहीं है। इस जिनमत में तो हिंसा का सर्वथा ॥ म निषेध ही है किंतु अन्य मत के समर्थकों ने जो अहिंसा कही है, वह योगमात्र से ही कही है 卐
अर्थात् कहीं अहिंसा कही है और कहीं हिंसा का भी पोषण किया है, अतः अहिंसा का कथन उन्होंने मनमाने ढंग से किया है।
[जिनागम में हिंसा का सर्वथा निषेध है, किंतु अन्य मत में विक्षिप्त व्यक्ति के कथन की तरह कहीं तो हिंसा का निषेध किया गया है और कहीं उसका पोषण किया गया है।]
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अहिंसा-विश्वकोश/167]