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(अनशन) करके उस अनशन-संथारे को पूर्ण (सिद्ध) रूप से करते हैं। उस अवमरण अनशन (संथारे) को सिद्ध करके अपने भूतकालीन पापों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके
समाधि प्राप्त होकर मृत्यु (काल) का अवसर आने पर मृत्यु प्राप्त करके किन्हीं (विशिष्ट) ॥ देवलोकों में से किसी एक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। तदनुसार वे महाऋद्धि, महाद्युति, ॐ महाबल, महायश यावत् महासुख वाले देवलोकों में महाऋद्धि आदि से संपन्न देव होते हैं। यह
(तृतीय मिश्रपक्षीय) स्थान आर्य (आर्यों द्वारा सेवित), एकांत सम्यक् और उत्तम है।
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कहं णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कजंति?
कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं # ओसह-सम्मिस्सं भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाते णो भद्दए भवति, तओ卐 जपच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए जाव सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए
भुजो भुजो परिणमति। एवामेव कालोदाई! जीवाणं पाणातिवातवेरमणे जाव
परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे तस्स णं आवाए नो भद्दए # भवइ, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए, जाव सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए ॐ भुजो भुजो परिणमइ एवं खलु कालोदाई! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कजंति।
(व्या. प्र. 7/10/18) [प्र.] भगवन्! जीवों के कल्याणकर्म, कल्याणफलविपाक से संयुक्त कैसे होते हैं?
[उ.] कालोदायिन्! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ (सुन्दर) स्थाली (हांडी, तपेली या 卐 देगची) में पकाने से शुद्ध पका हुआ और अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से ॐ युक्त औषधमिश्रित भोजन करता है, तो वह भोजन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में अच्छा न लगे, परन्तु बाद में परिणत हो होता-होता वह सुरूपत्व रूप में, सुवर्णरूप में यावत् सुख (या
शुभ) रूप में बार-बार परिणत होता है, तब वह दुःखरूप में परिणत नहीं होता, इसी प्रकार 卐 हे कालोदायिन्! जीवों के लिए प्राणातिपात- विरमण यावत् परिग्रह-विरमण, क्रोधविवेक
(क्रोधत्याग) यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक प्रारम्भ में अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसके
पश्चात् उसका परिणमन होते-होते सुरूपत्व रूप में, सुवर्णरूप में उसका परिणाम यावत् । म सुखरूप होता है, दुःखरूप नहीं होता। इसी प्रकार हे कालोदायिन्! जीवों के कल्याण 卐 (पुण्य) कर्म कल्याणफलविपाक-संयुक्त होते हैं। [ [निष्कर्ष:- औषधयुक्त भोजन करना कष्टकर लगता है, उस समय उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता है
किन्तु उसका परिणाम हितकर, सुखकर और आरोग्यकर होता है। इसी प्रकार प्राणातिपातादि से विरति कष्टकर एवं ॐ अरुचिकर लगती है, किन्तु उसका परिणाम अतीव हितकर और सुखकर होता है।] FREEFEREFERRESTER
अहिंसा-विश्वकोश।।59]
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