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(347) पाणवह-मुसावाया अदत्त-मेहुण-परिग्गहा विरो। राईभोयणविरओ जीवो भवइ अणासवो॥
(उत्त. 30/2) प्राण-हिंसा, मृषावाद, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह और रात्रि-भोजन की विरति से जजीव अनास्रव-आस्रवरहित होता है।
FO अहिंसाः संयग-द्वार
{348) एगिंदिया णं जीवा असमारंभमाणस्स पंचविधे संजमे कज्जति, तं जहापुढविकाइय- संजमे, (आउकाइयसंजमे, तेउकाइयसंजमे, वाउकाइयसंजमे), वणस्सतिकाइयसंजमे।
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(ठा. 5/2/140) एकेन्द्रियजीवों का आरंभ-समारंभ नहीं करने वाले जीव को पांच प्रकार का संयम 卐 होता है। जैसे-1. पृथिवीकायिक-संयम, 2. अप्कायिक-संयम, 3. तेजस्कायिक-संयम, 卐 ॐ 4. वायुकायिक-संयम, और 5. वनस्पतिकायिक-संयम।
(349) तेइंदिया णं जीवा असमारंभमाणस्स छविहे संजमे कजति, तं जहा- घाणामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति। घाणामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति। जिब्भामातो
सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति, (जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति। फासामातो म सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति। फासामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति)।
(ठा. 6/81)
त्रीन्द्रिय जीवों का घात करने वाले पुरुष को छह प्रकार का संयम प्राप्त होता है। जैसे1. घ्राण-जनित सुख का वियोग नहीं करने से। 2. घ्राण-जनित-दुःख का संयोग नहीं करने से। 3. रस-जनित सुख का वियोग नहीं करने से। 4. रस-जनित दु:ख का संयोग नहीं करने से। 5. स्पर्श-जनित सुख का वियोग नहीं करने से।
6. स्पर्श-जनित दुःख का संयोग नहीं करने से। REFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/162