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{350) जो जीव-रक्खण-परो गमणागमणादि-सव्व कज्जेसु। तण-छेदं पि ण इच्छदि संजम-धम्मो हवे तस्स॥
(स्वा. कार्ति. 12/399) जीव की रक्षा में तत्पर जो मुनि गमन-आगमन आदि सब कार्यों में तृण का भी छेद नहीं करना चाहता, उस मुनि के संयम धर्म होता है।
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{351) पंचिंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स दसविधे संजमे कजति, तं जहाॐ सोतामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवति।सोतामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति।
(चक्खुमयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवति। चक्खुमएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता ॐ भवति। घाणामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवति। घाणामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता ॐ भवति। जिब्भामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवति। जिब्भामएणं दुक्खेणं
असंजोगेत्ता भवति। फासामयाओ सोक्खाओ अववरोवेत्ता भवति।) फासामएणं ॥ दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति।
(ठा. 10/22) पंचेन्द्रिय जीवों का घात नहीं करने वाले के दस प्रकार का संयम होता है। जैसे1. श्रोत्रेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने से। 2. श्रोत्रेन्द्रिय-सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से। 3. चक्षुरिन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने से। 4. चक्षुरिन्द्रय-सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से। 5. घाणेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने से। 6. घ्राणेन्द्रिय-सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से। 7. रसनेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने से। 8. रसनेन्द्रिय-सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से। 9. स्पर्शनेन्द्रिय-सम्बन्धी सुख का वियोग नहीं करने से। 10. स्पर्शनेन्द्रिय-सम्बन्धी दुःख का संयोग नहीं करने से।
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S अहिंसा-विश्वकोश।।63)