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(336) मणुस्से सु-1 पगइभद्दयाए, 2 पगइविणीययाए, 3 साणुक्कोसयाए, 54 अमच्छरिययाए।
(औप. 56) इन कारणों से जीव मनुष्य-योनिमें उत्पन्न होते हैं
1. प्रकृति-भद्रता- स्वाभाविक भद्रता/अहिंसक आचरण- भलापन, जिससे किसी 卐 को भीति या हानि की आशंका न हो, 2. प्रकृति-विनीतता- स्वाभाविक विनम्रता, 3.
सानुक्रोशता- दयालुता, करुणाशीलता, तथा 4. अमत्सरता-ईर्ष्या का अभाव।
(337}
तिहिं ठाणेहिं जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- णो पाणे 卐 अतिवातित्ता भवइ, णो मुसं वदित्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता
णमंसित्ता सक्कारित्ता सम्माणित्ता कल्लाणं मंगलं-देवतं चेतितं पज्जुवासेत्ता मणुण्णेणं पीतिकारएणं असणपाणखाइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ- इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा ॐ सुहदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेति।
(ठा. 3/1/20) तीन प्रकार से जीव शुभ दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं- प्राणों का घात न करने से, मृषावाद न बोलने से और तथारूप श्रमण माहन को वन्दन-नमस्कार कर, उनका सत्कार सम्मान कर, कल्याणकर, मंगल देवरूप तथा चैत्यरूप मान कर उसकी पर्युपासना कर उन्हें मनोज्ञ एवं प्रीतिकर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार का प्रतिलाभ (दान) करने से। उक्त तीन प्रकारों से जीव शुभ दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं।
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(338) तिहिं ठाणेहिं जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- णो पाणे अतिवातित्ता भवइ, णो मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा 'फासुएणं एसणिजेणं'
असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ- इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा 卐दीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति।
(ठा. 3/1/18) तीन प्रकार से जीव दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं- प्राणों का अतिपात न करने से, मृषावाद न बोलने से, और तथारूप श्रमण महान को प्रासुक एषणीय अशन, पान, 卐 खाद्य, स्वाद्य आहार का प्रतिलाभ (दान) करने से। इन तीन प्रकारों से जीव दीर्घआयुष्य ॐ कर्म का बन्ध करते हैं।
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अहिंसा-विश्वकोश।1551