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EEEEEEEEEEEEEEEEma FO हिंसक आचार-विचार के दुष्परिणाम
(220)
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हिंसादिएहिं पंचहि आसवदारेहिं आसवदि पावं। तेहिं तु धुव विणासो सासवणावा जह समुद्दे ॥
(मूला. 8/738) हिंसा आदि आस्रव-द्वार से पाप का आना होता है। उनसे निश्चित ही विनाश होता 卐 है। जैसे जल के आस्रव के कारण नौका समुद्र में डूब जाती है।
{221} एतेसु बाले य पकुव्वमाणे आवट्टती कम्मसु पावएसु। अतिवाततो कीरति पावकम्मं णिउंजमाणे उ करेइ कम्मं॥
__ (सू.कृ. 1/10/5) अज्ञानी मनुष्य इन (दुःखी जीवों) में (वध आदि का प्रयोग) करता हुआ पापकर्मों के आवर्त में फंस जाता है। वह स्वयं प्राणों का अतिपात कर पाप-कर्म करता है और म दूसरों को (प्राणों के अतिपात में) नियोजित करके भी पाप-कर्म करता है।
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(222) आवंती केआवंती लोयंसि विप्परामुसंति अट्ठाए अणट्ठाए वा एतेसु चेव विप्परामुसंति। गुरू से कामा। ततो से मारस्स अंतो। जतो से मारस्स अंतो ततो से दूरे।
(आचा. 1/5/1 सू. 147) इस लोक (जीव-लोक) में जितने भी (जो भी) कोई मनुष्य सप्रयोजन (किसी कारण से) या निष्प्रयोजन (बिना कारण) जीवों की हिंसा करते हैं, वे उन्हीं जीवों 卐 *(षड्जीवनिकायों) में विविध रूप में उत्पन्न होते हैं।
उनके लिए शब्दादि काम (विपुल विषयेच्छा)का त्याग करना बहुत कठिन होता का है। इसलिए (षड्जीवनिकाय-वध तथा विशाल काम-भोगेच्छाओं के कारण) वह मृत्यु की 卐 पकड़ में रहता है, इसलिए अमृत (परमपद) से दूर होता है।
[जैन संस्कृति खण्ड/100