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स्पर्श दहकती हुई करीष की अग्नि या खदिर (खैर) की अग्नि के समान उष्ण, तथा तलवार, 卐
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उस्तरा अथवा करवत की धार के सदृश तीक्ष्ण है। वह स्पर्श बिच्छू के डंक से भी अधिक वेदना उत्पन्न करने वाला अतिशय दुस्सह होता है। वहां के नारकी जीव त्राण व शरण से रहित हैं, न कोई उनकी रक्षा करता है, न उन्हें आश्रय देता है। वे नरक कटुक दु:खों के कारण 卐 घोर
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परिणाम उत्पन्न करने वाले हैं। वहां लगातर दुःखरूप वेदना चालू ही रहती है- पल भर
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के लिए भी चैन नहीं मिलता। वहां यमपुरुषों अर्थात् पन्द्रह प्रकार के परमाधामी देवों की
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भरमार है ।
{269)
पेस्सपसु - णिमित्तं ओसहाहारमाइएहिं उक्खणण-उक्कत्थण-पयण-कुट्टण- सडण - फुडण-भंजण-छेयण-तच्छण- 卐
पीसण-पिट्टण - भज्जण - गालण - आमोडण - स
विलुंचण - पत्तज्झोडण - अग्गिदहणाइयाइं, एवं ते भवपरंपरादुक्ख- समणुबद्धा अडति जीवा पाणाइवायणिरया अनंतकालं ।
संसारबीहणकरे
(प्रश्न. 1/1/सू.41)
आहार आदि के लिए खोदना, छानना, मोड़ना, सड़ जाना, स्वयं टूट जाना, मसलना -
लोगों द्वारा अपने नौकर-चाकरों तथा गाय-भैंस - बैल आदि पशुओं की दवा और
卐 कुचलना, छेदन करना, छीलना, रोमों का उखाड़ना, पत्ते आदि तोड़ना, अग्नि से जलाना, इस
परम्परा
प्रकार (वनस्पतिकाय, पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय व वायुकाय के रूप में) जन्म
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के (अनेकानेक ) दुःखों को भोगते हुए वे हिंसाकारी पापी जीव भयंकर संसार में
अनन्त काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं।
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