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(274)
तमाइक्खइ एवं खलु चउहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पकरेंति, णेरइयत्ताए
कम्मं पकरेत्ता णेरइएसु उववज्जंति । तं जहा - 1 महारंभयाए, 2 महापरिग्गहयाए, 3 पंचिंदियवहेणं, 4 कुणिमाहारेणं, एवं एएणं अभिलावेणं ।
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मणुस्सेसु -1 पगइभद्दयार, 2 पगइविणीययाए, 3 साणुक्कोसयाए, 4 अमच्छरिययाए ।
आयुष्य - बन्ध करते हैं, फलतः वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं।
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भगवान् ने आगे कहा- जीव चार स्थानों- कारणों से- नैरयिक - नरक योनि का
महापरिग्रह- अत्यधिक संग्रह के भाव या वैसा आचरण, 3. पंचेन्द्रिय-वध- मनुष्य, तिर्यंच
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पशु पक्षी आदि पांच इन्द्रियों वाले प्राणियों का हनन, तथा 4. मांस भक्षण ।
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वे स्थान या कारण इस प्रकार हैं- 1. महाआरम्भ - घोर हिंसा के भाव व कर्म, 2.
( औप. 56; उवा. 1 / 11)
(ठा. 3/1/19)
प्रकार से
अशुभ दीर्घायुष्य कर्म का बन्ध करते हैं- प्राणों का घात करने
से, मृषावाद बोलने से और तथारूप श्रमण माहन की अवहेलना, निन्दा, अवज्ञा, गर्हा और क अपमान कर किसी अमनोज्ञ तथा अप्रीतिकर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य का प्रतिलाभ (दान)
करने से। इन तीन प्रकारों से जीव अशुभ दीर्घ आयुष्य कर्म का बन्ध करते हैं।
(275)
तिहिं ठाणेहिं जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा- पाणे
अतिवातित्ता भवइ, मुसं वइत्ता भवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलित्ता निंदित्ता खिंसित्ता गरहित्ता अवमाणित्ता अण्णयरेणं अमणुण्णेणं अपीतिकारएणं क 馬 असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता भवइ - इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं जीवा 事 असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पगरेंति ।
(276)
पंचहिं ठाणेहिं जीवा दोग्गतिं गच्छंति, तं जहा- पाणातिवातेणं जाव
(मुसावाएणं, अदिण्णादाणेणं, मेहुणेणं), परिग्गहेणं ।
और 5. परिग्रह से ।
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पांच कारणों से जीव दुर्गति में जाते हैं। जैसे
1. प्राणातिपात (जीव-वध ) से, 2. मृषावाद से, 3. अदत्तादान से 4. मैथुन से,
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(31. 5/1/16)
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अहिंसा - विश्वकोश | 125]
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