________________
听听听听听听听听听听听听听明
{277) अविद्याक्रान्तचित्तेन विषयान्धीकृतात्मना। चरस्थिराङ्गिसंघातो निर्दोषोऽपि हतो मया॥
(ज्ञा. 33/34/1723) यन्मया वञ्चितो लोको वराको मूढमानसः। उपायैर्बहुभिर्निन्द्यैः स्वाक्षसंतर्पणार्थिना॥ कृतः पराभवो येषां धनभूस्त्रीकृते मया। घाताश्च तेऽत्र संप्राप्ताः कर्तुं तस्याद्य निष्क्रियाम्॥
___(ज्ञा. 33/37-37.1/1726-27) ॥ __ (हिंसा कर नरक-गति में गया हुआ नारकी जीव सोचता है-) मैंने अज्ञान के वश 卐 होकर विषयों में अन्ध होते हुए निरपराध भी त्रस और स्थावर प्राणियों के समूह का घात 卐 किया है। (1723) । अपनी इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने की इच्छा से बहुत-से निन्द्य उपायों द्वारा जो मैंने
बेचारे मूढबुद्धि जनों को ठगा था तथा धन, भूमि और स्त्री के निमित्त जिन लोगों का मैंने म तिरस्कार किया था और जिनका घात भी किया था, वें आज यहां उसका प्रतीकार करने के लिए (अपना प्रतिशोध लेने हेतु) यहां (नरक में) प्राप्त हुए हैं। (1726-27)
{278} ततो विदुर्विभङ्गात्स्वं पतितं श्वभ्रसागरे। कर्मणाऽत्यन्तरौद्रेण हिंसाद्यारम्भजन्मना॥ ततः प्रादुर्भवत्युच्चै : पश्चात्तापोऽपि दुःसहः। दहन्नविरतं चेतो वज्राग्निरिव निर्दयः॥
__ (ज्ञा. 33/27-28/1715-16) (नरक में उत्पन्न) प्राणी अपने विभंगज्ञान के आश्रय से यह जान लेते हैं कि हम हिंसादि के आरम्भ से उत्पन्न हुए अतिशय दारुण कर्म के कारण इस नरक रूप समुद्र में है 卐 गिराये गये हैं। तत्पश्चात् उन्हें निर्दय वज्राग्नि के समान निरन्तर चित्त को जलाने वाला अधिक 卐 दुःसह पश्चात्ताप उत्पन्न होता है।
REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/126