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इस प्रकार परमार्थ से अनभिज्ञ वे अन्यतीर्थिक व्यक्ति स्त्रियों और शब्दादि कामभोगों में आसक्त (मूर्च्छित), गृद्ध ( विषयलोलुप ) सतत विषयभोगों में ग्रस्त, गर्हित एवं लीन
रहते हैं।
वे चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक काम - भोगों का उपभोग करके मृत्यु के समय मृत्यु पा कर असुरलोक में किल्बिषी असुर के रूप उत्पन्न होते हैं। उस आसुरी योनि से (आयुक्षय होने से) विमुक्त होने पर (मनुष्यभव में भी) बकरे की तरह 卐 मूक, जन्मान्ध (द्रव्य से अंध एवं भाव से अज्ञानान्ध) एवं जन्म से मूक होते हैं। इस प्रकार विषय- लोलुपता की क्रिया के कारण लोभप्रत्ययिक पाप (सावद्य) कर्म का बंध होता है। इसीलिए बारहवें क्रियास्थान को लोभप्रत्ययिक कहा गया है। इन पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों (के स्वरूप) को मुक्तिगमनयोग्य (द्रव्य-भव्य ) श्रमण या माहन का सम्यक् प्रकार से जानं लेना चाहिए, और तत्पश्चात् इनका त्याग करना चाहिए ।
O हिंसा: असंयम-द्वार
(301)
बेइंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स चठव्विहे संजमे कज्जति, तं जहाजिब्भामयातो सोक्खातो अववरोवित्ता भवति, जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति, की फासामयातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति, फासामएणं दुक्खेणं असंजोगित्ता भवति । (ठा. 4/4/616) द्वीन्द्रिय जीवों को नहीं मारने वाले पुरुष के चार प्रकार का संयम होता है, जैसे1. द्वीन्द्रिय जीवों के जिह्वामय सुख का घात नहीं करता, यह पहला संयम है ।
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2. द्वीन्द्रिय जीवों के जिह्वामय दुःख का संयोग नहीं करता, यह दूसरा संयम है। 3. द्वीन्द्रिय जीवों के स्पर्शमय सुख का घात नहीं करता, यह तीसरा संयम है। 4. द्वीन्द्रिय जीवों के स्पर्शमय दुःख का संयोग नहीं करता, यह चौथा संयम है। क
(302)
भावे अ असंगमो सत्यं ।
भाव - दृष्टि से संसार में असंयम ही सबसे बड़ा शस्त्र है।
( आचा. नि. 96 )
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अहिंसा - विश्वकोश | 141 ]