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(300) 卐 अहावरे बारसमे किरियाठाणे लोभवत्तिए .ति आहिजति, तंजहा-जे इमे जभवंति आरण्णिषा आवसहिया गामंतिया कण्हुईराहस्सिया, णो बहुसंजया, णो
बहुपडिविरया सव्वपाण-भूत-जीव-सत्तेहिं, ते अप्पणा सच्चामोसाइं एवं विठंजंति
अहं ण हंतव्वो अन्ने हंतव्या, अहं ण अजावेतव्वो अन्ने अजावेयव्वा, अहं ण म परिघेत्तव्यो अन्ने परिघेत्तव्वा, अहं ण परितावेयव्वो अन्ने परितावेयव्वा, अहं ण ॐ उद्दवेयव्वो अन्ने उद्दवेयव्या, एकामेव ते इथिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिता गरहिता
अण्झोववण्णा जाव वासाइं चउपंचमाई छ।समाई अप्पयरो वा भुजयरो वा भुंजित्तु ।
भोगभागाई कालमासे कालं किच्चा अन्नतरेसु आसुरिएसु किब्बिसिएसु ठाणेसु उववत्तारो 9 भवंति, ततो विष्पमुच्चमाणा भुजो भुज्जो एलसूयत्ताए तम्बत्ताए जाइयत्ताए पच्चायंति, 卐 * एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजे ति आशिजति, दुवालसमे किरियाठाणे लोभवत्तिए त्ति आहिते इच्छताई दुवासम किरियामणाई दविएणं समणेणं वा महाणेणं वा सम्म की जाणियच्याई भवंति। .
.... (सू.कृ. 2/2/ सू.706) बारहवां क्रियास्थान है, जिसे लोभप्रत्ययिक कहा जाता है। वह इस प्रकार है- ये जो # वन में निवास करने वाले (आरण्यक) हैं, जो कुटी बना कर रहते (आवसथिक ) हैं, जो # ग्राम के निकट डेरा डाल कर (ग्राम के आश्रय से अपना निर्वाह करने हेतु) रहते (ग्रामान्तिक) जगे हैं, कई (गुफा, वन आदि) एकांत (स्थानों) में निवास करते हैं, अथवा कोई रहस्यमयी
गुप्त क्रिया करते (राहस्यिक) हैं। ये आरण्यक आदि न तो सर्वथा संयत (सर्वसावध
अनुष्ठानों से निवृत्त) हैं और न ही (प्राणातिपातादि समस्त आस्रवों से) विरत हैं, वे समस्त ॐ प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की हिंसा से स्वयं विरत नहीं हैं। वे (आरण्यकादि) स्वयं
कुछ सत्य और कुछ मिथ्या (सत्यमिथ्या) (अथवा सत्य होते हुए भी जीवहिंसात्मक होने से मृषाभूत) वाक्यों का प्रयोग करते हैं जैसे कि-मैं (उच्च जाति का होने से) मारे जाने
योग्य नहीं हूं, अन्य लोग (नीच जाति का होने से) मारे जाने योग्य (मारे जा सकते) हैं, मैं " ॐ (वर्गों में उत्तम होने से) आज्ञा देने (आझ में चलाने) योग्य नहीं हूं, किंतु दूसरे (निम्नवर्णीय)
आज्ञा देने योग्य हैं, मैं (दास-दासी आदि के रूप में खरीद कर) परिग्रहण या निग्रह करने में योग्य, नहीं हूं, दूसरे (निम्नवर्णीय) परिग्रह या निग्रह करने योग्य हैं, मैं संताप देने योग्य नहीं है
हूं, किंतु अन्य जीव संताप देने योग्य हैं, मैं उद्विग्न करने या जीव-रहित करने योग्य नहीं हूं, 卐 दूसरे प्राणी उद्विग्न, भयभीत या जीवरहित करने योग्य हैं।
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गगनावाचा
[जैन संस्कृति खण्ड/140