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F REEEEEEEEEEEEEEEETA कायचेष्टा या क्रिया (काम) करते हैं, तथा अपने (कुकृत्यों के कारण) उल्लू के पंख के है समान हलके होते हुए भी अपने आपको पर्वत के समान बड़ा भारी समझते हैं, वे आर्य ।
(आर्यदेशोत्पन्न) होते हुए भी (स्वयं को छिपाने के लिए) अनार्यभाषाओं का प्रयोग करते 卐 हैं, वे अन्य रूप में होते हुए भी स्वयं को अन्यथा (साधु पुरुष के रूप में) मानते हैं; वे दूसरी ॐ बात पूछने पर (वाचालतावश) दूसरी बात का व्याख्यान करने लगते हैं, दूसरी बात कहने
के स्थान पर (अपने अज्ञान को छिपाने के लिए) दूसरी बात का वर्णन करने पर उतर जाते हैं। (उदाहरणार्थ-) जैसे किसी (युद्ध से पलायित) पुरुष के अंतर में शल्य (तीर या ॐ नुकीला कांटा) गड़ गया हो, वह उस शल्य को (वेदनासहन में भीरुता प्रदर्शित न हो,' ॐ इसलिए या पीड़ा के डर से) स्वयं नहीं निकालता, न किसी दूसरे से निकलवाता है, (और
न चिकित्सक के परामर्शानुसार किसी उपाय से) उस शल्य को नष्ट करवाता है, प्रत्युत निष्प्रयोजन ही उसे छिपाता है, तथा उसकी वेदना से अंदर ही अंदर पीड़ित होता हुआ उसे
सहता रहता है, इसी प्रकार मायी व्यक्ति भी माया (कपट) करके उस (अंतर में गड़े हुए) ॐ मायाशल्य को निंदा के भय से स्वयं (गुरुजनों के समक्ष) आलोचना नहीं करता, न उसका
प्रतिक्रमण करता है, न (आत्मसाक्षी से) निंदा करता है, न (गुरुजन-समक्ष उसकी गर्दा करता है (अर्थात् उक्त माया शल्य को न तो स्वयं निकालता है, और न दूसरों से निकलवाता है।) न वह उस (मोथाशल्य) को प्रायश्चित्त आदि उपायों से तोड़ता (मिटाता) है, और न 卐 उसकी शुद्धि करता है, उसे पुनः न करने के लिए भी उद्यतं नहीं होता, तथा उस पापकर्म के अनुरूप यथायोग्य तपश्चरण के रूप में प्रायश्चित्त भी स्वीकार नहीं करता।
इस प्रकार मायी इस लोक में (मायी रूप में) प्रख्यात हो जाता है, (इसलिए) म अविश्वसनीय हो जाता है; (अतिमायी होने से) परलोक में (अधम यातना-स्थानों-नरक म तिर्यञ्चगतियों में) भी पुनः पुनः जन्म-मरण करता रहता है। वह (नाना प्रपञ्चों से वंचना
करके) दूसरे की निंदा करता है, दूसरे से घृणा करता है, अपनी प्रशंसा करता है, निश्चिन्त ।
हो कर बुरे कार्यों में प्रवृत्त होता है, असत् कार्यों से निवृत्त नहीं होता, प्राणियों को दंड दे कर 卐 भी उसे स्वीकारता नहीं, छिपाता है (दोष ढंकता है)। ऐसा मायावी शुभ लेश्याओं को 卐 卐 अंगीकार भी नहीं करता। ऐसा मायी पुरुष पूर्वोक्त प्रकार की माया (कपट) युक्त क्रियाओं के
के कारण (सावद्य) कर्म का बंध करता है। इसीलिए इस ग्यारहवें क्रियास्थान को मायाप्रत्ययिक कहा गया है।
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अहिंसा-विश्वकोश।।39]