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पागब्धि पाणे बहुणं तिवाई अणिव्वुडे घायमुवेइ बाले ।
हो सिं गच्छ अंतकाले अहोसिरं कट्टु उवेइ दुग्गं ॥
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(सू.कृ. 1/5/1/5)
जो ढीठ मनुष्य अनेक प्राणियों को मारते हैं, अशान्त रहते हैं, वे अज्ञानी आघात 節 (दुर्गति) को प्राप्त होते हैं। वे जीवन का अन्तकाल होने पर नीचे अंधकार- पूर्ण रात्रि (नरक) को प्राप्त होते हैं और नीचे सिर हो कठोर पीड़ा को प्राप्त करते हैं । 箭
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भी फलतः वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं।
(284)
एवं खलु चठहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पकरेंति, णरइयत्ताए कम्मं क पकरेत्ता णेरइएस उववज्जंति, तं जहा - महारं भयाए, महापरिग्गहयाए, कुणिमाहारेणं ।
पंचिंदियवहेणं,
जीव चार स्थानों- कारणों से- नैरयिक-नरक योनि का आयुष्य-बन्ध करते हैं,
(391. 1/11)
卐 महापरिग्रह - अत्यधिक संग्रह के भाव व वैसा आचरण, 3. पंचेन्द्रिय-वध- मनुष्य, तिर्यंच
वे स्थान या कारण इस प्रकार हैं- 1. महाआरंभ - घोर हिंसा के भाव व कर्म, 2.
पशु पक्षी आदि पांच इंद्रियों वाले प्राणियों का हनन, तथा 4. मांस भक्षण ।
{285)
कहं णं भंते! जीवा असुभदीहाउयठत्ताए कम्मं पकरेंति ?
गोमा ! पाणे अतिवाइत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलित्ता
निंदित्ता खिंसित्ता गरहित्ता अवमन्नित्ता, अन्नतरेणं अमणुण्णेणं अपीतिकारएणं असण
पाण- खाइम - साइमेणं पडिलाभेत्ता, एवं खलु जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ।
(व्या. प्र. 5/6/3)
[प्र.] भगवन्! जीव अशुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्म किन कारणों (कैसे) बांधते हैं?
[उ.] गौतम! प्राणियों की हिंसा करके, असत्य बोल कर, एवं तथारूप श्रमण और
माहन की (जाति को प्रकट कर) हीलना, (मन द्वारा) निन्दा, खींसना (लोगों के समक्ष,
झिड़कना, बदनाम करना), गर्हा ( जनता के समक्ष निन्दा) एवं अपमान करके, अमनोज्ञ
और अप्रीतिकर अशन, पान, खादिम और स्वादिम (रूप चतुर्विध आहार) दे (प्रतिलाभित)
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करके। इस प्रकार ( इन तीन कारणों से) जीव अशुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्म बांधते हैं।
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