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(216)
दुःखमुत्पद्यते जन्तोर्मन: संक्लिश्यते ऽस्यते ।
तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिंसा हेया प्रयत्नतः ॥
! उसकी वर्तमान पर्याय छूट जाती है, उस हिंसा को पूरे प्रयत्न से छोड़ना चाहिए।
जिस हिंसा में जीव को दुःख उत्पन्न होता है, उसके मन में संक्लेश होता है, और
(217)
अविरमणं हिंसादी पंचवि दोसा हवंति णादव्वा ।
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(सा. ध. 4/13)
(218)
मिथ्यादर्शनमात्मस्थं हिंसाद्यविरतिस्तथा । प्रमादश्च कषायश्च योगो बन्धस्य हेतवः ॥
हिंसा (असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य व परिग्रह) आदि पांचों ही 'अविरति' रूप हैं और दोष (पाप) रूप हैं, ऐसा जानना चाहिए ।
{219}
स्वान्ययोरप्यनालोक्य सुखं दुःखं हिताहितम् । जन्तून् यः पातकी हन्यात्स नरत्वेऽपि राक्षसः॥
(मूला. 4/238)
आत्मपरिणामों में स्थित मिथ्यादर्शन, हिंसा आदि अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- ये (अशुभ कर्म - ) बन्ध के कारण हैं।
(ह. पु. 58/ 192 )
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(ज्ञा. 8 / 50 / 522 )
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जो पापी नर अपने और अन्य के सुख-दुःख वा हित-अहित को न विचार कर जीवों को मारता है, वह मनुष्य जन्म में भी राक्षस है । ( क्योंकि मनुष्य होता तो अपने वा पराये का हिताहित तो विचारता ।)
अहिंसा - विश्वकोश /99/