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卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐事, का परिताप दिया जा सकता है, उनको प्राणहीन बनाया जा सकता है, इस विषय में यह निश्चित 馬 समझ लो कि हिंसा में कोई दोष नहीं है।"- यह सरासर अनार्य - वचन है । 卐 हम इस प्रकार कहते हैं, ऐसा ही भाषण करते हैं, ऐसा ही प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा ही प्ररूपण करते हैं, कि सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उनको 馬 जबरन शासित नहीं करना चाहिए, उन्हें पकड़ कर दास नहीं बनाना चाहिए, न ही परिताप देना चाहिए और न उन्हें डराना-धमकाना, तथा प्राण-रहित करना चाहिए। इस सम्बन्ध में निश्चित समझ लो कि अहिंसा का पालन सर्वथा दोष-रहित है। यह (अहिंसा का प्रतिपादन) आर्यवचन है।
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पहले उनमें में प्रत्येक दार्शनिक को, जो-जो उसका सिद्धान्त है, उसमें व्यवस्थापित कर हम पूछेंगे -" हे दार्शनिकों ! प्रखरवादियों ! आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय है, तब तो वह उत्तर प्रत्यक्ष - विरुद्ध होगा, यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय नहीं है, तो आपके द्वारा इस सम्यक् सिद्धान्त के स्वीकार किए जाने पर हम आपसे यह कहना चाहेंगे कि, जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख असाताकारक है, अप्रिय है, अशान्तिजनक है और महाभयंकर है।" - ऐसा मैं कहता हूं ।
(214)
एइंदियादिपाणा पंचविहावज्जभीरुणा
सम्मं ।
ते खलु ण हिंसिदव्वा मणवचिकायेण सव्वत्थ ॥
(मूला. 4/ 289 )
एकेन्द्रिय आदि जीव पांच प्रकार के होते हैं। पापभीरु को सम्यक् प्रकार से मनवचन- काय पूर्वक सर्वत्र उन जीवों की निश्चितरूप से हिंसा नहीं करनी चाहिए ।
(215) अवबुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगूहमानैर्निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा॥
(पुरु. 4/24/60)
'संवर' (कर्म - आगमन / बंधन के रोकने) में उद्यमी पुरुषों को चाहिए कि वे हिंस्य,
हिंसक, हिंसा और हिंसा के फलों को यथार्थ रीति से जान कर हिंसा को सर्वदा के लिए
यथाशक्ति छोड़ दें।
编
[ जैन संस्कृति खण्ड /98
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