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{211) भयवेपितसर्वाङ्गाननाथान् जीवितप्रियान्। निघ्नद्भिः प्राणिनः किं तैः स्वं ज्ञातमजरामरम् ॥
(ज्ञा. 8/38/510) जिनके सब अंग भय से कंपित हैं, जिनका कोई रक्षक नहीं, जो अनाथ हैं, जिनके के लिए जीवन ही एकमात्र प्रिय वस्तु है, ऐसे प्राणियों को जो मारते हैं उन्होंने क्या अपने को
अजरामर जान लिया है?
(212)
तनुरपि यदि लग्ना कीटिका स्याच्छरीरे, भवति तरलचक्षुर्व्याकुलो यः स लोकः। कथमिह मृगयाप्तानन्दमुत्खातशस्त्रः, मृगमकृतविकारं ज्ञातदुःखोऽपि हन्ति॥
(पद्म. पं. 1/26) अपने शरीर में (छोटी-सी जन्तु) चींटी भी लग जाय (और काट ले) तो लोग * व्याकुल हो जाते हैं आंखें तरल/साई हो जाती हैं, उक्त दुःख की अनुभूति कर लेने के बाद
भी वे लोग, शिकार खेलने के आनन्द में मग्न होकर हाथ में शस्त्र उठाकर, उस (बेचारे) ॐ मृग को भी मारते हैं जो क्रोधादि-विकार से रहित-निरपराध होता है।
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चिट्ट कूरेहिं कम्मेहिं चिट्ट परिविचिट्ठति। अचिट्ठे कूरेहिं कम्मेहिं णो चिट्ट 卐 परिविचिट्ठति।
एगे वदंति अदुवा वि णाणी, णाणी वदंति अदुवा वि एगे।
आवंती केआवंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदंति "से दिळं म च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढे अहं तिरियं दिसासु सव्वतो ॐ सुपडिलेहियं च णे-सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे भूता सव्वे सत्ता हंतव्वा,
अजावेतव्वा, परिघेत्तव्वा, परितावेतव्वा, उद्दवेतव्वा । एत्थ वि जाणह णत्थेत्थ दोसो"
अणारियवयणमेयं। 卐 तत्थ जे ते आरिया ते एवं वयासी-"से दुद्दिठं च भे, दुस्सुयं च भे, दुम्मयं ॥ जच भे, दुव्विण्णायं च भे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो दुप्पडिलेहितं च भे, जं. *HEEFLEHEYENEFLEYEYEFFENEFINFLUEFFFFFFFFFFFFEE [जैन संस्कृति खण्ड/96