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(203) प्राणी प्राणातिलोभेन यो राज्यमपि मुञ्चति। तद्वधोत्थमघं सर्वोर्वीदानेऽपि न शाम्यति॥
(है. योग.2/22) यह जीव जीने के लोभ से राज्य का भी त्याग कर देता है। उस जीव का वध करने से उत्पन्न हिंसा के पाप का शमन (पाप से छुटकारा) सारी पृथ्वी का दान करने पर भी नहीं है। हो सकता।
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{204) जीववहो अप्पवहो जीवदया होइ अप्पणो हु दया। विसकंटओव्व हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि॥
(भग. आ. 793) जीवों का घात अपना ही घात है। और जीवों पर की गई दया अपने पर ही की गई दया 卐 है। जो एक बार एक जीव का घात करता है वह स्वयं अनेक जन्मों में मारा जाता है। और जो " ॐ एक जीव पर दया करता है वह स्वयं अनेक जन्मों में दूसरे जीवों के द्वारा रक्षित होता है।
इसलिए दुःख से डरने वाले मनुष्य को विषैले कांटे की तरह हिंसा से बचना चाहिए।
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(205) मारेदि एयमवि जो जीवं सो बहुसु जम्मकोडीसु। अवसो मारिजंतो मरदि विधाणेहिं बहुएहिं ॥
(भग. आ. 798) जो एक भी जीवों को मारता है, वह करोड़ों जन्मों में परवश होकर अनेक प्रकार के से मारा जाकर मरता है।
{206) वने निरपराधानां वायु-तोय-तृणाशिनाम्। निघ्नन् मृगाणां मांसार्थी, विशिष्येत कथं शुनः॥
(है. योग.2/23) ___ वन में रहने वाले, वायु, जल व हरी घास का सेवन करने वाले निरपराध, वनचारी हिरणों को जो मारता है, उसमें मांसार्थी कुत्ते से अधिक क्या विशेषता है? अर्थात् दोनों में है कोई अन्तर नहीं है। SHREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
[जैन संस्कृति खण्ड/94