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तेलोक्कजीविदादो वरेहि एक्कदरमत्ति देवेहिं । भणिदो को तेलोकं वरिज संजीविदं मुच्चा॥ जं एवं तेलोक्कं णग्घदि सव्वस्स जीविदं तम्हा। जीविदघादो जीवस्स होदि तेलोकघादसमो॥
(भग. आ.781-782)卐 (टीका) त्रैलोक्यजीवितयोरेकं गृहाणेति देवैश्वोदित: कस्त्रैलोक्यं वृणीते स्वजीवितं त्यक्त्वा, जीवनमेव ग्रहीतुं वाञ्छति। यस्मादेवं त्रैलोक्यस्य मूल्यं जीवितं सर्वप्राणिनस्तस्माजीवितघातः। ............ जीवस्य हंतुस्त्रैलोक्यघातसमो महान्दोषो भवतीति यावत् ॥
(भग. आ. विजयो. 781-782) (गाथा एवं टीका का भावार्थ-) तीनों लोकों और जीवन में से एक को स्वीकार 卐 करो? ऐसा देवों के द्वारा कहे जाने पर कौन प्राणी अपना जीवन त्याग कर तीनों लोकों को ॐ ग्रहण करेगा? इस प्रकार सब प्राणियों के जीवन का मूल्य तीनों लोक है। अत: जीव का घात
करने वालों को तीनों लोकों का घात करने के समान दोष होता है।
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सकलजलधिवेलावारिसीमां धरित्रीम्, नगरनगसमग्रां स्वर्णरत्नादिपूर्णाम्। यदि मरणनिमित्ते कोऽपि दद्यात्कथंचित्, तदपि न मनुजानां जीविते त्यागबुद्धिः॥
(ज्ञा. 8/34/506) यदि कोई किसी मनुष्य को उसके मर जाने के बदले में नगर, पर्वत तथा सुवर्ण, रत्न, धन,धान्य आदि से भरी हुई समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का भी दान करे, तो भी अपने जीवन को त्याग करने में उसकी इच्छा नहीं होगी।
12021 सप्तद्वीपवती धात्री कुलाचलसमन्विताम्। नैकप्राणिवधोत्पन्नं दत्त्वा दोषं व्यपोहति ॥
(ज्ञा. 8/33/505) यदि कुलाचल पर्वतों के सहित सात द्वीपों वाली पृथ्वी भी दान कर दी जाय तो भी । एक प्राणी को मारने का पाप दूर नहीं हो सकता है। F FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN
अहिंसा-विश्वकोश/93]
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