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卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 भाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भज्जामरणाणं पुत्तमरणाणं धूयमरणाणं सुन्हामरणाणं दारिद्दाणं दोहग्गाणं अप्पियसंवासाणं पिर्याविप्पओगाणं बहूणं दुक्खदोमणसाणं आभागिणो भविस्संति, अणादियं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउंरतसंसारकंतारं भुज्जो - भुज्जो अणुपरियट्टिस्संति, ते नो सिज्झिस्संति नो बुज्झिस्संति जाव नो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति, एस तुला, एस पमाणे, एस समोसरणे, पत्तेयं तुला, पत्तेयं पमाणे, पत्तेयं समोसरणे ।
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(सू.कृ. 2/2/719)
(परमार्थतःआत्मौपम्यमयी अहिंसा ही धर्म है - ऐसा सिद्ध होने पर भी ) धर्म के प्रसंग में जो श्रमण और माहन ऐसा कहते हैं, यावत् ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि समस्त
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प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का हनन करना चाहिए, उन पर आज्ञा चलानी चाहिए, उन्हें दास-दासी आदि के रूप में रखना चाहिए, उन्हें परिताप (पीड़ा) देना चाहिए, उन्हें क्लेश देना चाहिए, उन्हें उपद्रवित ( भयभीत) करना चाहिए। ऐसा करने वाले वे भविष्य में 卐 卐 अपने शरीर को छेदन - भेदन आदि पीड़ाओं का भागी बनाते हैं। वे भविष्य में जन्म, जरा, मरण, विविध योनियों में उत्पत्ति, फिर संसार में पुन: जन्म, गर्भवास, और सांसारिक प्रपंच fi (अरहट्टघटिका न्यायेन संसारचक्र) में पड़ कर महाकष्ट के भागी होंगे। वे घोर दण्ड के भागी होंगे, वे बहुत ही मुण्डन, तर्जन, ताडन, खोड़ी बंधन के, यहां तक कि घोले (पानी में डुबोए जाने के भागी होंगे। तथा माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू आदि के मरण - दुःख के भागी होंगे। (इसी प्रकार) वे दरिद्रता, दुर्भाग्य, अप्रिय व्यक्ति के साथ
क निवास, प्रिय-वियोग, तथा बहुत-से दुःखों और वैमनस्यों के भागी होंगे। वे आदि卐 ! अन्तरहित तथा दीर्घकालिक (या दीर्घमध्य वाले) चतुर्गतिक संसार - रूप घोर जंगल में बार-बार परिभ्रमण करते रहेंगे। वे सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त नहीं होंगे, न ही बोध को प्राप्त होंगे, यावत् सर्व: दुखों का अंत नहीं कर सकेंगे (जैसे सावद्य अनुष्ठान करने वाले अन्यतीर्थिक
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सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकते, वैसे ही सावद्य अनुष्ठान करने वाले स्वयूथिक भी सिद्धि प्राप्त ! नहीं कर सकते, वे भी पूर्वोक्त अनेक दुःखों के भागी होते हैं।) यह कथन सबके लिए तुल्य
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है, यह प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध है ( कि दूसरों को पीड़ा देने वाले चोर, जार आदि
प्रत्यक्ष ही दंड भोगते नजर आते हैं), (समस्त आगमों का ) यही सारभूत विचार है। यह
(सिद्धांत) प्रत्येक प्राणी के लिए तुल्य है, प्रत्येक के लिए यह प्रमाणसिद्ध है, तथा प्रत्येक
के लिए (आगमों का ) यही सार - भूत विचार है ।
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[ जैन संस्कृति खण्ड / 108
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