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(207)
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म्रियस्वेत्युच्यमानोऽपि देही भवति दुःखितः। मार्यमाणः प्रहरणैर्दारुणैः, स कथं भवेत्? ॥
(है. योग.2/26) __ अरे! मर जा तू! इतना कहने मात्र से भी जब जीव दुःखी नो जाता है तो भयंकर ॥ हथियारों से मारे जाते हुए जीवों को कितना दुःख होता होगा?
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(208) दीर्यमाणः कुशेनापि यः स्वांगे हन्त! दूयते। निर्मन्तून् स कथं जन्तूनन्तयेन्निशितायुधैः । निर्मातुं क्रूरकर्माणः क्षणिकामात्मनो धृतिम्। समापयन्ति सकलजन्मान्यस्य शरीरिणः॥
(है. योग. 2/24-25) अपने शरीर के किसी भी अंग में यदि डाभ की जरा-सी नोक भी चुभ जाय तो उससे मनुष्य दुःखी हो उठता है। अफसोस है, वह तीखे हथियारों से निरपराध जीवों का प्राणान्त कैसे कर डालता है? उस समय वह उससे खुद को होने वाली पीड़ा का विचार क्यों -
नहीं करता? क्रूर कर्म करने वाले शिकारी अपनी क्षणिक तृप्ति के लिए दूसरे जीव के समस्त 卐 जन्मों का नाश कर देते हैं।
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(209)
दूयते यस्तृणेनापि स्वशरीरे कदर्थिते। स निर्दयः परस्याङ्गे कथं शस्त्रं निपातयेत् ॥
(ज्ञा. 8/47/519) . जो मनुष्य अपने शरीर में तिनका चुभने पर भी अपने को दुःखी हुआ मानता है, वह निर्दय होकर दूसरे शरीर पर शस्त्र कैसे चलाता है?
. (210)
स्वपुत्रपौत्रसन्तानं वर्द्धयन्त्यादरैर्जनाः। व्यापादयन्ति चान्येषामत्र हेतुर्न बुध्यते ॥
(ज्ञा. 8/39/511) यहा बड़ा आश्चर्य है कि अपने पुत्रपौत्रादि सन्तान को तो लोग बड़े यत्न से पालते और बढ़ाते हैं परन्तु दूसरों की सन्तान का घात करते हैं। न जाने, इसमें क्या हेतु है? पEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
अहिंसा-विश्वकोश/95/