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ॐ रौद्ररूप दुर्ध्यान हो सकता है, फिर भी चूंकि मार देने पर उनके पाप का क्षय होता है, इसीलिए मारने वाला दोषी नहीं है 卐 होता, अपितु उनके पाप के क्षय का कारण ही वह होता है। अतः प्रथम अणुव्रत में सामान्य से स्थूल प्राणियों के घात 卐 का प्रत्याख्यान न करा कर विशेष रूप में सुखी प्राणियों के ही प्राण-घात का प्रत्याख्यान करना चाहिए। अन्यथा, दुःखी 卐 प्राणियों के भी प्राण-घात का परित्याग कराने से वे जीवित रह कर उस पापजनित दुःख को दीर्घकाल तक भोगते है 卐 रहेंगे, जबकि इसके विपरीत, मारे जाने पर वे उस पाप से छुटकारा पा जाएंगे। इस प्रकार यहां संसारमोचकों ने अपने 卐 ॐ पक्ष को स्थापित किया है।]
{131) अन्नाणकारणं जइ तदवगमा चेव अवगमो तस्स। किं वहकिरियाए तओ विवजओ तीइ अह हेऊ॥
(श्रा.प्र. 141) इस पर वादी (संकट-मोचक) कहता है कि उस कर्म का कारण अज्ञान है। इसके 卐 उत्तर में वादी से कहा जाता है कि तब तो उस अज्ञान के विनाश से ही उस कर्म का क्षय हो :
सकता है, अर्थात् कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता है, ऐसा जब न्याय है तब
तदनुसार कारणभूत उस अज्ञान के दूर करने से ही कार्यभूत कर्म का विनाश सम्भव है। ऐसी ॐ स्थिति में उन दुःखी जीवों का वध करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होने वाला है? उसके वध है जसे कुछ भी लाभ होने वाला नहीं है। इस पर वादी कहता है कि उस वधक्रिया का विपर्यय
उन दुःखी जीवों का वध न करना-ही उस कर्मबंध का कारण है।
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चिट्ठउ ता इह अन्नं तक्खवणे तस्स को गुणो होइ। कम्मक्खउ ति तं तुह किंकारणगं विणिद्दिढें ॥
(श्रा.प्र. 140) (जैनों की ओर से संसार-मोचकों के उक्त मत का निराकरण करने हेतु उन पर आक्षेप) बहुत-सी बातों को छोड़ कर हम वादी से पूछते हैं कि उन दुःखी जीवों के
कर्मक्षय में उनका वध करके कर्मक्षय कराने वाले को क्या लाभ है? इसके उत्तर में यदि ॥ न कहा जाए कि उसको उसके कर्म के क्षय का होना ही लाभ है तो इस पर पुनः प्रश्न है
कि तुम्हारे मतानुसार उस कर्म का कारण आगम में क्या निर्दिष्ट किया गया है, जिसका Eक्षय अभीष्ट है?
अहिंसा-विश्वकोश/61)