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{146) धर्मबुद्ध्याऽधमैः पापं जन्तुघातादिलक्षणम्। क्रियते जीवितस्यार्थे पीयते विषमं विषम्॥
(ज्ञा. 8/28/500) जो पापी व्यक्ति धर्म की बुद्धि से जीवघात रूपी पाप को करते हैं, वे अपने जीवन की इच्छा से मानों हलाहल विष को पीते हैं।
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Oहिंसाः यज्ञ आदि में धर्म-सग्गत नहीं
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(147) कुसं च जूवं तणकट्ठमग्गि सायं च पायं उदगं फुसन्ता। पाणाइ भूयाइ विहेडयन्ता भुजो वि मन्दा! पगरेह पावं॥
(उत्त. 12/39) (हरिकेश जैन मुनि द्वारा यज्ञकर्ता ब्राह्मणों को उद्बोधन-) "कुश (डाभ), यूप (यज्ञस्तंभ), तृण, काष्ठ और अग्नि का प्रयोग तथा प्रातः और संध्या में जल का स्पर्श-इस 卐 प्रकार तुम मन्द-बुद्धि लोग, प्राणियों और भूत (वृक्षादि) जीवों का विनाश करते हुए 卐 पापकर्म कर रहे हो।"
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(148)
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हिंसारंभो ण सुहो देव-णिमित्तं गुरूण कज्जेसु।
(स्वा. कार्ति. 12/406) देव के निमित्त से अथवा गुरु के कार्य के निमित्त से भी हिंसा करना पाप ही है, धर्म नहीं है।
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हिंसा पावं ति मदो दया-पहाणो जदो धम्मो॥
(स्वा. कार्ति. 12/406) हिंसा को पाप कहा है और धर्म को दयाप्रधान कहा है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/66