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{142} शान्त्यर्थं देवपूजार्थं यज्ञार्थमथवा नृभिः। कृतः प्राणभृतां घात: पातयत्यविलम्बितम्॥
(ज्ञा. 8/17/489) ___ अपनी शान्ति के लिए अथवा देवपूजा के लिए तथा यज्ञ के लिए जो मनुष्य है जीवघात (जीव-हिंसा) करते हैं, वह घात उन्हें शीघ्र ही नरक में डालता है।
{143} तितीर्षति ध्रुवं मूढः स शिलाभिनंदीपतिम्। धर्मबुद्ध्याऽधमो यस्तु घातयत्यङ्गिसंचयम्॥
(ज्ञा. 8/22/494) ___ जो मूढ व अधम व्यक्ति धर्म की बुद्धि से जीवों को मारता है, वह पाषाण की शिलाओं पर बैठ कर समुद्र को तैरने की इच्छा करता है, क्योंकि वह निश्चित ही डूबेगा y (दुर्गति प्राप्त करेगा)।
(144)
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चरुमन्त्रौषधानां वा हेतोरन्यस्य वा क्वचित् । कृता सती नरैल्सिा पातयत्यविलम्बितम्॥
(ज्ञा. 8/26/498)
देवता की पूजा हेतु रखे जाने वाले नैवेद्य तथा मंत्र व औषध के निमित्त अथवा अन्य ॥ किसी भी कार्य के लिए की गई हिंसा जीवों को नरक में ले जाती है।
{145) जेवऽन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति, तेसिं पि वयं लजामो।
(आचा.1/8/1/203) यदि कोई अन्य व्यक्ति धर्म के नाम पर जीवों की हिंसा करते हैं, तो हमें उन (के दुष्कृत्य) पर लज्जा आती है।
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अहिंसा-विश्वकोश/65)