________________
FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFE, Pa Oजीव-हिंसाः देव-बलि के रूप में निन्दनीय
(161) देवोपहारव्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा। घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम्॥
(है. योग. 2/39) देवों को बलिदान देने (भेंट चढ़ाने) के बहाने अथवा यज्ञ के बहाने जो निर्दय हो म कर जीवों को मारते हैं, वे घोर दुर्गति में जाते हैं।
{162)
न हि महिषास्रपानविधिका न हि शूलकरा न हि सुरदुर्गतावपि परस्परघातकता।
(ह. पु. 49/35)
明明明明明明明明明明明明明明明明听听 F%%%%%%%%%弱弱弱弱弱
उत्तम देवगति की बात छोड़िए, निकृष्ट देवगति में भी कोई देव भैंसों का रुधिर पान 卐 करने वाले एवं हाथों में त्रिशूल धारण करने वाले नहीं है, और न वे परस्पर एक दूसरे को
मारते ही हैं। (अतः उन्हें प्रसन्न करने हेतु पशु-बलि देना अज्ञानपूर्ण ही है।)
的听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听
Oजीव-हिंसा व गांस-भोजन: श्राद्ध में अमान्य
{163) इति स्मृत्यनुसारेण पितृणां तर्पणाय या। मूलैर्विधीयते हिंसा, साऽपि दुर्गतिहेतवे ॥
(है. योग. 2/47) स्मृतिवाक्यानुसार पितरों के तर्पण के लिए मूढ़ व्यक्ति (मांस दान करते हैं और) जो हिंसा करते हैं, वह उनके लिए दुर्गति का कारण ही बनती है।
[स्मृति ग्रंथ के नाम से प्रसिद्ध कुछ ग्रंथों में श्राद्ध आदि धार्मिक कार्यों में मांस दान का समर्थन प्राप्त 卐 होता है, जो वस्तुतः प्रक्षिप्त है और अहिंसक परम्परा के प्रतिकूल है। आचार्य हेमचंद्र ने इसी तथ्य को यहां॥ ॐ रेखांकित किया है।
A
अहिंसा-विश्वकोश/711