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* (4) खुद्द (क्षुद्र)- सरसरी तौर पर देखने से क्षुद्र व्यक्ति हिंसक नजर नहीं आता। वह सहिष्णु, प्रतीकार-प्रवृत्ति से शून्य नजर आता है। मनोविज्ञान के अनुसार क्षुद्रता के
जनक हैं- दुर्बलता, कायरता एवं संकीर्णता । क्षुद्र व्यक्ति अन्य के उत्कर्ष से ईर्ष्या करता है। 卐 प्रतीकार की भावना, शत्रुता की भावना उसका स्थायी भाव है। प्रगति का सामर्थ्य न होने के 卐
कारण वह अन्तर्मानस में प्रतिक्रियावादी होता है। प्रतिक्रिया का मूल है- असहिष्णुता। * असहिष्णुता व्यक्ति को संकीर्ण बनाती है। अहिंसा का उद्गम सर्वजगजीव के प्रति वात्सल्यभाव है और हिंसा का उद्गम अपने और परायेपन की भावना से है।
संकीर्णता की विचारधारा व्यक्ति को चिंतन की समदृष्टि से हट कर व्यष्टि में ' 卐 केन्द्रित करती है। स्वकेन्द्रित विचारधारा व्यक्ति को क्षुद्र बनाती है। क्षुद्र प्राणी इसका सेवन करते हैं। अतएव इसे क्षुद्र कहा गया है।
(5) साहसिक- आवेश में विचारपूर्वक प्रवृत्ति का अभाव होता है। उसमें आकस्मिक 卐 अनसोचा काम व्यक्ति कर गुजरता है। उसका स्वनियंत्रण भग्न हो जाता है। उत्तेजक 卐 परिस्थिति से प्रवृत्ति गतिशील होती है। विवेक लुप्त होता है। अविवेक का साम्राज्य छा
जाता है। विवेक अहिंसा है, अविवेक हिंसा है। साहसिक अविवेकी होता है। इसी कारण
उसे हिंसा कहा गया है। 'साहसिकः सहसा अविचार्यकारित्वात्' अर्थात् विचार किए 卐 बिना कार्य कर डालने वाला।
(6) अणारिअ (अनार्य)- अनार्य पुरुषों द्वारा आचरित होने से अथवा हेय * प्रवृत्ति होने से इसे अनार्य कहा गया है।
(7) णिग्घिण (निघृण)- हिंसा करते समय पाप से घृणा नहीं रहती, अतएव यह निघृण है।
(8) णिस्संस (नृशंस)- हिंसा दयाहीनता का कार्य है, प्रशस्त नहीं है, अतएवई नृशंस है।
(9,10,11) महब्भअ (महाभय), पइभअ (प्रतिभय), अतिभ 卐 (अतिभय)- कोई यह सोच कर हिंसा करते हैं कि इसने मेरी या मेरे संबंधी की हिंसा ॥ 卐 की थी या यह मेरी हिंसा करता है अथवा मेरी हिंसा करेगा। तात्पर्य यह है कि हिंसा की है
पृष्ठभूमि में प्रतीकार के अतिरिक्त भय भी प्रबल कारण है। हिंसा की प्रक्रिया में हिंसक
भयभीत रहता है। हिंस्य भयभीत होता है। हिंसा-कृत्य को देखने वाले दर्शक भी ॐ भयभीत होते हैं । हिंसा में भय व्याप्त है। हिंसा भय का हेतु है, इसलिए इसे महाभयरूप卐 ॐ माना गया है।
[जैन संस्कृति खण्ड/84