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जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणमपरो अविरतो य। तत्थ वि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए॥
___(बृ.भा. 3938) एक असंयमी, जानकर हिंसा करता है और दूसरा अनजाने में। शास्त्र में इन दोनों 5 के हिंसाजन्य कर्मबन्ध में महान् अन्तर बताया है।
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(175) अविधायापि हिं हिंसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः। कृत्वाऽप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥ एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम्। अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ।
___(पुरु. 4/15/51-52) वास्तव में एक जीव किसी की हिंसा (द्रव्य-हिंसा) को न करके भी (अन्तरंग में है भाव-हिंसा रहने के कारण) हिंसा के फल को भोगने का पात्र बनता है, और दूसरा जीव किसी की हिंसा (द्रव्य-हिंसा) करके भी (अन्तरंग में भाव-हिंसा के- राग आदि के
अभाव से) हिंसा के फल भोगने का पात्र नहीं होता है। इसी प्रकार, एक जीव को तो छोटी卐 सी हिंसा भी उदयकाल में बहुत अधिक फल देती है और दूसरे जीव को अधिक हिंसा भी
उदयकाल में बहुत ही थोड़ा फल देने वाली होती है (क्योंकि भाव-हिंसा की तीव्रता या अल्पता ही फल की अधिकता या अल्पता का निर्धारण करती है)।
(176) एक: करोति हिंसां भवन्ति फलभागिनो बहवः। बहवो विदधति हिंसां हिंसाफलभुग भवत्येकः॥
(पुरु. 4/19/55) कभी-कभी ऐसा भी होता है कि- द्रव्यहिंसा तो एक जीव करता है, परन्तु भावहिंसा जी के कारण उसका फल अनेक जीव पाते हैं।
[जैसे- कोई पुरुष अन्य पुरुष को मार रहा है, अन्य दर्शक उसके इस हिंसक कार्य को अच्छा कहते हैं तथा प्रसन्न हो रहे हैं, ऐसी स्थिति में वे सभी दर्शक रौद्र परिणाम करने के कारण पाप-कर्म का बन्ध करते हैं तथा कालान्तर से उसे भोगेंगे।]
FFFFFFFFFF [जैन संस्कृति खण्ड/16
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