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इय परिणामा बंधे बालो वुड्दुत्ति थोवमियमित्थ। बाले वि सो न तिव्वो कयाइ बुड्ढे वि तिव्वुत्ति ॥
(श्रा.प्र. 229) इस प्रकार- पूर्व प्रदर्शित युक्तिसंगत विचार के अनुसार- परिणाम से बन्ध के सिद्ध होने पर बाल अथवा वृद्ध-यह इस प्रसंग में स्तोक मात्र है- वे हिंसा की हीनाधिकता के
कारण नहीं है। कारण यह है कि बालक के वध में भी कदाचित् यह तीव्र संक्लेश परिणाम ॐ न हो और कदाचित् वृद्ध के वध में वह तीव्र संक्लेश परिणाम हो यह सब मारने का विचार 卐 करने वाले व्यक्तियों के अभिप्राय-विशेष पर निर्भर है।
(186)
तम्हा सव्वेसिं चिय वहमि पावं अपावभावेहि। भणियमहिगाइभावो परिणामविसेसओ पायं ॥
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(श्रा.प्र. 234)
इसलिए पाप-परिणाम से रहित (वीतराग) जिनदेव के द्वारा बाल व वृद्ध आदि सभी जीवों के वध में पाप कहा गया है। उस पाप की अधिकता आदि का निर्णय प्रायः वधकर्ता के परिणाम-विशेष के अनुसार जानना चाहिए।
[बाल आदि वध में कर्म का अधिक उपक्रम होने से अधिक, और इसके विपरीत वृद्ध आदि के वध में है। अल्प पाप होता है, इस मान्यता का निराकरण करते हुए यह कहा जा चुका है कि कर्म का बंध वधकर्ता के परिणामविशेष के अनुसार होता है, न कि बाल-वृद्धादि अवस्था-विशेष के आधार पर। इन सबका उपसंहार करते हुए यह * कहा गया है कि वीतराग जिनेन्द्र ने यह सभी जीवों के वध में पाप बतलाया है। इसमें जो अधिकता और हीनता होती है ॐ है, वह वधकर्ता के परिणाम-विशेष के अनुसार हुआ करती है-यदि वधकर्ता का परिणाम अतिशय संक्लिष्ट है तो ॐ उसमें अधिक पाप होगा और उसका परिणाम मंद संक्लेश रूप है तो पाप कम होगा।]
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[जैन संस्कृति खण्ड/80