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卐 [हस्तितापसों का अहिंसामतः आर्द्रकमुनि द्वारा प्रतिवाद- प्रस्तुत तीन सूत्र गाथाओं में से प्रथम गाथा 卐 में हस्तितापसों की जीवों की न्यूनाधिक संख्या के आधार पर हिंसा के अल्पत्व-बहुत्व की मान्यता अंकित की है, शेष 卐दो गाथाओं में आर्द्रक मुनि द्वारा इस विचित्र मान्यता का निराकरण करके वास्तविक अहिंसा की आराधना का है ॐ प्रतिपादन किया गया है।
हस्तितापसों की मान्यता- अधिक जीवों के वध से अधिक और अल्पसंख्यक जीवों के वध से अल्पहिंसा卐 होती है। वे कहते हैं- कन्द, मूल, फल आदि खाने वाले, या अनाज खाने वाले साधक बहुत-से स्थावर जीवों तथा ॥ उनके आश्रित अनेक जंगम जीवों की हिंसा करते हैं। भिक्षाजीवी साधक भी भिक्षा के लिए घूमते समय चींटी आदि卐
अनेक प्राणियों का उपमर्दन करते हैं, तथा भिक्षा की प्राप्ति-अप्राप्ति में उनका चित्त रागद्वेष से मलिन भी होता है, 卐 ॐ अतः हम इन सब प्रपंचों से दूर रह कर वर्ष में एक बार सिर्फ बड़े हाथी को मार लेते हैं, उसके मांस से वर्ष भर निर्वाह 卐 करते हैं। अतः हमारा धर्म श्रेष्ठ है। म अहिंसा के सम्बन्ध में होने वाली भ्रान्ति का निराकरण- आर्द्रकमुनि अहिंसा संबंधी उस भ्रान्ति का निराकरण
दो तरह से करते हैंOF 1. हिंसा-अहिंसा की न्यूनाधिकता के मापदंड का आधार मृत जीवों की संख्या नहीं है। अपितु उसका + आधार प्राणी की चेतना, इन्द्रियां, मन, शरीर आदि का विकास एवं मारने वाले की तीव्र-मन्द मध्यम भावना तथा पर
: अहिंसाव्रती की किसी भी जीव को न मारने की भावना एवं तदनुसार क्रिया है। अतः जो हाथी जैसे विशालकाय, CE विकसित चेतनाशील पंचेन्द्रिय प्राणी को मारता है, वह कथमपि घोर हिंसा-दोष से रहित नहीं माना जा सकता।
2. वर्षभर में एक महाकाय प्राणी का घात करके निर्वाह करने से सिर्फ एक प्राणी का घात नहीं, अपितु उस प्राणी के आश्रित रहने वाले तथा उसके मांस, रक्त, चर्बी आदि में रहने या उत्पन्न होने वाले अनेक स्थावर-त्रस जीवों का घात होता है। इसीलिए पंचेन्द्रिय जीव का वध करने वाले हिंसक, अनार्य एवं नरकगामी हैं। वे स्वपरहितकारी सम्यग् ज्ञान से कोसों दूर हैं। अगर अल्प संख्या में जीवों का वध करने वाले को अहिंसा का आराधक कहा जाएगा, तब तो मर्यादित हिंसा करने वाला गृहस्थ भी पूर्णतः हिंसादोष-रहित माना जाने लगेगा।
3. अहिंसा की पूर्ण आराधना ईर्यासमिति से युक्त भिक्षाचरी के 42 दोषों से रहित भिक्षा द्वारा यथालाभसंतोषपूर निर्वाह करने वाले सम्पूर्ण अहिंसा-महाव्रती भिक्षुओं द्वारा ही हो सकती है।]
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O हिंसा के सम्बन्ध में अन्य तीर्थकों का अज्ञान
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तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी- केणं कारणेणं अज्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो?
तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिर एवं वयासी- तुब्भे णं अजो! रीयं 卐रीयमाणा पुढविं पेच्चेह जाव उवद्दवेह, तए णं तुब्भे पुढविं पेच्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवह।
(व्या. प्र. 8/1/20-21) (प्रतिप्रश्र-) इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस STERFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET5 y
[जैन संस्कृति खण्ड/58