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दयावरं धम्म दुगुंछमाणे, वहावहं धम्म पसंसमाणे ।
एगं पि जे भोययती असीलं, णिवो णिसं जाति कतो सुरेहिं ?
(सू.कृ. 2/6/831) दया - प्रधान धर्म की निन्दा और हिंसाप्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो नृप
(शासक) एक भी कुशील (मांस सेवन - आसक्त) ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह
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अंधकारयुक्त नरक में जाता है, फिर देवों (देवलोकों) में जाने की तो बात ही क्या है?
● हिंसा के सम्बन्ध में तापसों की अविवेकपूर्ण मान्यता
{126)
संवच्छरे णावि य एगमेगं, बाणेण मारेउ महागयं तु । सेसाण जीवाण दयट्टयाए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो ॥ संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता अणियत्तदोसा । साण जीवाण वहेण लग्गा, सिया य थोवं गिहिणो वितम्हा ॥ संवच्छ रेणावि य एगमेगं, पाणं हणंते समणव्वतेसु । आयाहिते से पुरिसे अणज्जे, न तारिसा केवलिणो भवंति ॥
(सू.कृ. 2/6/838-840)
(हस्तितापस का आर्द्रक मुनि को कथन - ) हम लोग (अपनी तापसपरम्परानुसार)
शेष जीवों की दया के लिए वर्ष में एक बड़े हाथी को बाण से मार कर वर्षभर उसके मांस
♛ से अपना जीवन-यापन करते हैं। (आर्द्रकमुनि सयुक्तिक प्रतिवाद करते हुए कहते हैं-) जो 卐
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पुरुष वर्षभर में भी एक ( पंचेन्द्रिय) प्राणी को मारते हैं, वे भी दोषों से निवृत्त ( रहित ) नहीं हैं। क्योंकि ऐसा मानने पर शेष जीवों ( क्षेत्र और काल से दूर प्राणियों) के वध में प्रवृत्त (संलग्न) न होने के कारण थोड़े-से (स्वल्प) जीवों को हनन करने वाले गृहस्थ भी दोषरहित क्यों नहीं माने जाएंगे?
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अहिंसा - विश्वकोश /57]
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जो पुरुष श्रमणों के व्रत में स्थित होकर वर्षभर में एक-एक प्राणी ( और वह भी 卐 पंचेन्द्रिय त्रस) को मारता है, उस पुरुष को अनार्य कहा गया है। ऐसे पुरुष केवलज्ञानी (केवलज्ञानसंपन्न) नहीं होते ।
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