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YEHEYERSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET 卐तु ब्भे वा अन्नो वा एवं वदह - णत्थि णं से के इ
परियाए जम्मि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खित्ते, अयं पि भे देसे मणो णेयाउए भवति।
(सू.कृ. 2/7/852) (इस पर ) भगवान् गौतम ने उदक पेढालपुत्र से युक्तिपूर्वक (सवाद) इस प्रकार 卐 कहा- आयुष्मन् उदक! हमारे वक्तव्य (मन्तव्य) के अनुसार तो यह प्रश्न ही नहीं उठता
(क्योंकि हमारा मन्तव्य यह है कि सबके सब त्रस एक ही काल में स्थावर हो जाते हैं, ऐसा
न कभी हुआ है, न होगा और न है।) आपके वक्तव्य (अनुप्रवाद) के अनुसार (यह प्रश्न 卐 उठ सकता है), परंतु आपके सिद्धान्तानुसार थोड़ी देर के लिए मान लें कि सभी स्थावर एक
ही काल में त्रस हो जाएंगे, तब भी वह (एक) पर्याय (त्रसरूप) अवश्य है, जिसके रहते है (त्रसघातत्यागी) श्रमणोपासक के लिए सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के घात (दण्ड
देने) का त्याग सफल होता है। इसका कारण क्या है? (सुनिये,) प्राणिगण परिवर्तनशील हैं, 卐 इसलिए त्रसप्राणी जैसे स्थावर के रूप उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही स्थावर प्राणी भी त्रस के
रूप में उत्पन्न हो जाते हैं। अर्थात् वे सब त्रसकाय को छोड़ कर स्थावरकाय में उत्पन्न हो जाते हैं, तथैव कभी स्थावरकाय को छोड़ कर सबके सब त्रसकाय में भी उत्पन्न हो जाते हैं। अत: 卐 जब वे सब (स्थावरकाय को छोड़ कर एकमात्र) त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं, तब वह स्थान (समस्त त्रसकायीय प्राणिवर्ग) श्रावकों के घात-योग्य नहीं होता। वे प्राणी भी कहलाते हैं ।
और त्रस भी कहलाते हैं। वे विशालकाय भी होते हैं और चिरकाल तक स्थिति वाले भी। 卐 वे प्राणी बहुत हैं, जिनमें श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल सुप्रत्याख्यान होता है। तथा ॥ (आपके मन्तव्यानुसार उस समय) वे प्राणी (स्थावर) होते ही नहीं, जिनके लिए श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता। इस प्रकार वह श्रावक महान् त्रसकाय के घात से उपशांत, (स्वप्रत्याख्यान में) उपस्थित तथा (स्थूल हिंसा से) प्रतिविरत होता है। ऐसी स्थिति में आप या )
दूसरे लोग, जो यह कहते हैं कि (जीवों का) एक भी पर्याय नहीं है, जिसको लेकर SE श्रमणोपासक का एक भी प्राणी के प्राणातिपात (दण्ड देने) से विरतिरूप प्रत्याख्यान यथार्थ 卐 एवं सफल (सविषय) हो सके। अतः आपका यह कथन न्यायसंगत नहीं है।
[उदक की आक्षेपात्मक शंका; गौतम का स्पष्ट समाधान- प्रस्तुत सूत्रद्वय में से प्रथम सूत्र में उदक के द्वारा प्रस्तुत आक्षेपात्मक शंका प्रस्तुत की गई है, द्वितीय सूत्र में भी श्री गौतम स्वामी का स्पष्ट एवं युक्तियुक्त समाधान अंकित है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/44