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[जो महाव्रती मुनि मन, वचन, काय और कृत, कारित अनुमोदना से स्वयं समस्त सावध कर्म का परित्याग ॐ कर चुका है, वह यदि किसी को स्थूल प्राणियों के विषात का व्रत ग्रहण कराता है तो उससे यह सिद्ध होता है कि 卐 उसकी सूक्ष्म प्राणियों के विघात विषयक अनुमति है। अन्यथा यह श्रावक को स्थूलों के साथ सूक्ष्म प्राणियों की भी 卐 हिंसा का परित्याग क्यों नहीं कराता? इस प्रकार सूक्ष्म प्राणियों की हिंसाविषयक अनुमति के होने पर उसका महाव्रत ॥ 卐 भंग होता है। यह शंकाकार का अभिप्राय है।]
1981
अविहीए होइ च्चिय विहीइ नो सुयविसुद्धभावस्स। गाहावइसुअचोरग्गहण-मोअणा इत्थ नायं तु ॥
(श्रा.प्र. 115)
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(उक्त शंका का समाधान इस प्रकार है-)
यदि स्थूल प्राणियों के घातं का प्रत्याख्यान कराने वाला वह यति आगमोक्त विधि के बिना, किसी श्रावक को उक्त प्रत्याख्यान कराता है तो निश्चित ही उसकी सूक्ष्म प्राणियों के घात में अनुमति होती है। पर श्रुत से विशुद्ध अन्त:करण वाला वह यदि विधिपूर्वक ही
उक्त प्रत्याख्यान कराता है तो सूक्ष्म प्राणियों के घात में उसकी अनुमति नहीं हो सकती। यहां म चोर के रूप में पकड़े गए गृहपति के पुत्रों के ग्रहण और मोचन का जो उदाहरण/दृष्टांत है,
उसके आधार पर उक्त शंका का समाधान कर लेना चाहिए। - [इसके स्पष्टीकरण में यहां एक सेठ के छह पुत्रों का उदाहरण दिया जाता है, जो चोरी के अपराध में पकड़े गए थे एवं जिनमें से एक बड़े पुत्र को ही सेठ छुड़ा सका था। वह कथा इस प्रकार से है-]
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{99) देवीतुट्ठो राया ओरोहस्स निसि ऊसवपसाओ। घोसण नरनिग्गमणं छव्वणियसुयाणनिखेवो ॥ चारियकहिए वज्झा मोएइ पिया न मिल्लइ राया। जिट्ठ मुयणे समस्स उ नाणुमई तस्स सेसेसु ॥ राया सड्ढो वाणिया काया साहू य तेसि पियतुल्लो। मोयइ अविसेसेणं न मुयइ सो तस्स किं इत्थ ॥
(श्रा.प्र. 116-118) राजा अपनी पटरानी पर संतुष्ट हुआ, इससे उसने उसकी इच्छानुसार रात में उत्सव ' जो मनाने के विषय में अन्त:पुर के प्रस्ताव पर प्रसन्नता प्रकट की। इसके लिए उसने राजधानी
के पुरुषों के लिए उत्सव मनाने हेतु नगर से बाहर निकल जाने के विषय में घोषणा करा दी। उस समय छह वणिक्पुत्र नगर के बाहर नहीं निकल सके। गुप्तचरों के कहने पर राजा ने
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अहिंसा-विश्वकोश/411