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FFM द्रिव्य हिंसा, भाव हिंसा आदि चार भेद-] 1. द्रव्य हिंसा (प्रगादरहित)
1821 उच्चालियंमि पाए इरियासमियस्स संकमट्ठाए। वावज्जिज्ज कुलिंगी मरिज तं जोगमासज्ज ॥ न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिओ समए। जम्हा सो अपमत्तो स उ पमाउ त्ति निद्दिट्ठा॥
(श्रा.प्र. 223-224, ओघ. नि. 卐
748-49 में आंशिक परिवर्तन के साथ) __'ईर्या समिति' के परिपालन में उद्यत साधु के गमन में पांव के उठाने पर उसके 卐 सम्बन्ध को पाकर क्षुद्र द्वीन्द्रिय आदि किन्हीं प्राणियों को पीड़ा हो सकती है व कदाचित् वे जो मरण को भी प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु उसके निमित्त से ईर्यासमिति में उद्यत उस साधु के लिए आगम में सूक्ष्म भी कर्म का बंध नहीं कहा गया है। इसका कारण यह है कि वह प्रमाद
से रहित है-प्राणि-रक्षण में सावधान होकर ही गमन कर रहा है, और प्रमाद को ही हिंसा के 卐 रूप में निर्दिष्ट किया गया है।
[कर्मबंध का कारण संक्लेश और विशुद्धि है। संक्लेश से प्राणी के जहां पाप का बंध होता है, वहां विशुद्धि से उसके पुण्य का बंध होता है। इस प्रकार जो साधु ईर्यासमिति से-चार हाथ भूमि को देखकर सावधानी से-गमन कर रहा है, उसके पांवों के धरने-उठाने में कदाचित् जंतुओं का विघात हो सकता है, फिर भी आगम में उसके तन्निमित्तक किंचित् भी कर्मबंध नहीं कहा गया है। कारण इसका यही है कि उसके परिणाम प्राणी-पीड़न के नहीं होते, वह तो उनके संरक्षण में सावधान होकर ही गमन कर रहा है। उधर आगम में इस हिंसा का लक्षण प्रमाद (असावधानी) ही बतलाया है। इसलिए प्रमाद से रहित होने के कारण गमनादि क्रिया में कदाचित् जंतुपीड़ा के होने पर भी, साधु के उसके निमित्त से पाप का बंध नहीं कहा गया है। यह द्रव्य हिंसा का उदाहरण है।]
1831 न य हिंसामेत्तेणं, सावजेणावि हिंसओ होइ। सुद्धस्स उ संपत्ती, अफला भणिया जिणवरेहिं ॥
__(ओघ. नि. 758) केवल बाहर में दृश्यमान पापरूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता। यदि साधक अन्दर में रागद्वेष से रहित शुद्ध है, तो जिनेश्वर देवों ने उसकी बाहर की हिंसा को # कर्मबंध का हेतु न होने से निष्फल बताया है।
अहिंसा-विश्वकोश।351