________________
$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$人
卐卐卐蛋蛋卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐B
O हिंसा की क्रमिक परिणतियां (करण)
तिविहे करणे पण्णत्ते,
(89)
जहा- आरंभकरणे, संरंभकरणे, समारंभकरणे ।
[ वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली जीव की शक्ति या वीर्य को 'योग' कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार ने मन, वचन और काय की क्रिया को 'योग' कहा है। योगों के संरम्भ-समारम्भादि रूप परिणमन को 'करण' कहते हैं ।]
(ठा. 3/1/16 )
'करण' तीन प्रकार का कहा गया है- आरम्भकरण, संरम्भकरण और समारम्भकरण ।
卐
{90)
प्राणव्यपरोपणादौ प्रमादवतः संरम्भः । साध्याया हिंसादिक्रियाया: साधनानां समाहारः समारम्भः । सचितहिंसाद्युपकरणस्य आद्यः प्रक्रम आरम्भः ।
(भग. आ. विजयो. 805 )
प्राणों के घात आदि में प्रमादयुक्त व्यक्ति जो प्रयत्न करता है, वह 'संरंभ' है । साध्य हिंसा आदि क्रिया के साधनों को एकत्र करना 'समारंभ' है। हिंसा आदि के उपकरणों का संचय हो जाने पर हिंसा का आरम्भ करना 'आरम्भ' है।
(91)
संरम्भो संकप्पो परिदावकदो हवे समारंभो । आरंभी उद्दवओ सव्ववयाणं विसुद्धाणं ॥
(हिंसा करने के) संकल्प को 'संरम्भ' कहते हैं । संताप देने को 'समारम्भ' कहते ! हैं और आरम्भ सब विशुद्ध व्रतों का घातक है।
आरम्भ (हिंसा - कार्य) सात प्रकार का कहा गया है। जैसे
[ जैन संस्कृति खण्ड /38
(भग. आ. 806 )
(92)
सत्तविहे आरंभे पण्णत्ते, तं जहा- पुढविकाइयआरंभे, आउकाइयआरंभे, तेउकाइयआरंभे, वाउकाइयआरंभे, वणस्सइकाइयआरंभे, तसकाइयआरंभे, अजीवकाइयआरंभे ।
(ठा. 7/84)
卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$
卐
過
卐
卐