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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
नियुक्तिकार ने प्रायः विषयों को हेतु पुरस्सर स्पष्ट किया है। वर्षाकाल से पूर्व कपड़े क्यों धोने चाहिए, इसके हेतु दिए हैं तो वर्षाकाल में धोने से होने वाली हानियों का भी कारण सहित विवेचन किया है। (देखें पिनि गा. २० और २१ का अनुवाद ) आहार करने के कारणों का उल्लेख किया है तो न करने के हेतुओं का भी स्पष्टीकरण किया है।
नियुक्ति-साहित्य का अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि नियुक्तिकार का मूल लक्ष्य विषय-प्रतिपादन था, किसी काव्य की रचना करना नहीं अतः उन्होंने छंदों पर ज्यादा ध्यान न देकर तथ्य-प्रतिपादन पर अधिक बल दिया है। कथाओं का प्रयोग
नियुक्तिकार का एक शैलीगत वैशिष्ट्य है कि विषय को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने प्रायः कथानकों का प्रयोग किया है। इनमें कुछ कथाएं राजा-रानी, मंत्री या श्रेष्ठी आदि से सम्बन्धित हैं तो कुछ कथाओं पर पंचतंत्र का प्रभाव परिलक्षित होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ ऐतिहासिक और पशु-पक्षी से सम्बन्धित काल्पनिक कथानकों को छोड़कर प्राय: कथानक या दृष्टान्त नियुक्तिकार ने अपने समय में घटित घटनाओं के आधार पर प्रस्तुत किए हैं। पिंडनियुक्ति में ऐतिहासिक कथाओं के अतिरिक्त प्रायः कथाओं में स्थान या व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है लेकिन टीकाकार ने प्रायः कथाओं में गांव, नगर या जनपद के नाम तथा सम्बन्धित व्यक्तियों के नामों का उल्लेख किया है। ऐसा संभव लगता है कि घटना को कथा का रूप देने के लिए टीकाकार ने काल्पनिक रूप से घटनास्थल तथा व्यक्ति के नामों का उल्लेख कर दिया है, जैसे गोवत्स दृष्टान्त में सागरदत्त श्रेष्ठी के चार पुत्र एवं चार पुत्रवधुओं के नाम। फिर भी इस विषय में और अधिक विमर्श की आवश्यकता है।
चाणक्य, आर्य समित या पादलिप्त आदि कुछ ऐतिहासिक कथाओं को छोड़कर प्रायः कथानक आगम-व्याख्या-साहित्य में अनुपलब्ध हैं। इसके कुछ कथानक निशीथ भाष्य और जीतकल्प भाष्य में मिलते हैं, इसका कारण है कि पिंडनियुक्ति से ही यह प्रकरण वहां संक्रान्त हुआ है।
पिंडनियुक्ति में निर्दिष्ट कथा में पशु-पक्षियों की समझ अत्यन्त विकसित रूप में प्रकट की गई है। मृग यूथपति मृगों से कहता है कि यह मौसम श्रीपर्णी फलों के विकसित होने का नहीं है। यदि विकसित हों तो भी ग्रीष्म ऋतु में इतनी मात्रा में फल नहीं होते अतः किसी धूर्त के द्वारा यह उपक्रम किया गया है। वानर यूथपति भी वानरों को समझाता है कि यह द्रह निरुपद्रव नहीं है क्योंकि यहां द्रह में जाते हुए श्वापदों के पदचिह्न है लेकिन निकलते हुए उनके पदचिह्न नहीं हैं। ग्रासैषणा दोष के संदर्भ में मत्स्य स्वयं अपने मुख से साहस भरी कथा कहता है। यहां ग्रंथकार ने छायावाद का सुंदर प्रयोग किया है।
१. पिनि ५३/१-५४, मवृ प. ३०, ३१ ।
२. पिनि २३६/१-३, मवृ प. १४६ ।
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