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पिण्डनिर्युक्ति: : एक पर्यवेक्षण
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गया है, उसे सुनकर परिवार के अन्य सदस्य आपस में हंसते हैं तो साधु को समझना चाहिए कि भिक्षा औदेशिक है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण ग्रंथ मुनि की भिक्षाचर्या का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत करने वाला है। इससे पूर्व विकीर्ण रूप से भगवती, आचारचूला आदि आगमों में भिक्षा सम्बन्धी दोषों का उल्लेख मिलता है लेकिन इतना क्रमबद्ध और व्यवस्थित वर्णन की दृष्टि से पिण्डनिर्युक्ति को सबसे प्राचीन ग्रंथ कहा जा सकता है 1
भाषा शैली
निर्युक्ति प्राकृत भाषा में रचित पद्यमयी व्याख्या है, इसमें अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों भाषाओं का प्रभाव परिलक्षित होता है। निर्युक्ति में निक्षेप पद्धति से विषय का प्रतिपादन हुआ है। नियुक्तिकार ने चयनित एवं पारिभाषिक शब्दों की निक्षेप पद्धति से विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है, जैसे पिण्ड, उद्गम, उत्पादना, एषणा आदि । इसके माध्यम से उन्होंने उस विषय का सर्वांगीण ज्ञान प्रस्तुत कर दिया है। पिंड
निक्षेप के प्रसंग में नियुक्तिकार स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यहां अचित्त द्रव्यपिंड और प्रशस्त भावपिंड का प्रसंग है लेकिन शिष्य की मति को व्युत्पन्न करने के लिए नाम आदि पिण्डों का विस्तृत विवेचन किया गया है । २
महत्त्वपूर्ण शब्दों के एकार्थक लिखना निर्युक्तिकार का भाषागत वैशिष्ट्य है । प्रसंगवश एकार्थकों का प्रयोग भी प्रस्तुत ग्रंथ में हुआ है, जैसे- पिण्ड, आधाकर्म आदि, देखें परि. सं. ६ । कहीं-कहीं ग्रंथकार
एकार्थक शब्दों की अर्थ-भेद परम्परा को भी उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया है, जो भाषाविज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । गाथा ५२/१ में आए एषणा, गवेषणा, मार्गणा और उद्गोपना – एकार्थक होते हुए भी चारों शब्दों का अर्थ-भेद ज्ञातव्य है, देखें ५२ / १ का अनुवाद |
अन्य नियुक्तियों की भांति पिण्डनिर्युक्ति में भी अनेक देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है, देखें परि. सं. ८ । प्रस्तुत ग्रंथ का भाषागत महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य है- मार्मिक एवं प्रभावक सूक्तियों का प्रयोग । आचारप्रधान होते हुए भी इस ग्रंथ में कुछ महत्त्वपूर्ण सूक्तियों का प्रयोग हुआ है, देखें परि. सं. ९ ।
उपमा, लौकिक दृष्टान्त, उदाहरण एवं न्याय के प्रयोग से भाषा में विचित्रता, वेधकता एवं सरसता उत्पन्न हो जाती है। नियुक्तिकार ने जटिल सैद्धान्तिक विषयों को नयी उपमाओं एवं दृष्टान्तों के माध्यम से समझाया है, देखें परि. सं. १० और १२ ।
१. पिनि ८९/८, मवृ प. ७३, ७४ ।
२. पिनि ४७ ; दव्वे अच्चित्तेणं, भावे य पसत्थएहिं पगतं ।
उच्चारितत्थसरिसा, सीसमतिविकोवणट्ठाए ॥
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