________________
पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
२५
जिसकी व्याख्या भाष्यकार एवं टीकाकार द्वारा की गई है। पिण्डनिर्युक्ति में उल्लिखित कुछ कथानकों को छोड़कर प्रायः कथानक नवीन हैं, जो अन्य व्याख्या - साहित्य में कम मिलते हैं । पिण्डनिर्युक्ति के कथावैशिष्ट्य के बारे में आगे चर्चा की जाएगी।
नियुक्तिकार ने प्रसंगवश दार्शनिक और तात्त्विक चर्चा भी की है। पिण्ड शब्द की व्याख्या में क्षेत्रपिण्ड और कालपिण्ड की व्याख्या दार्शनिक दृष्टि से की गई है। नाम, स्थापना, द्रव्य आदि से सम्बन्धित पिण्ड का संयोग और विभाग होता है अतः ये पारमार्थिक रूप से पिण्ड हैं लेकिन क्षेत्र और कापिण्ड में इस रूप से संयोग और विभाग नहीं होता इसलिए क्षेत्रपिण्ड और कालपिण्ड को औपचारिक रूप से स्वीकार किया गया है। यह तीन प्रदेशों में समवगाढ़ त्रिप्रादेशिक पुद्गल स्कन्ध है अथवा अमुक रसोई में बनाया गया खाद्य है, इस प्रकार का व्यपदेश क्षेत्रपिण्ड है। इसी प्रकार यह त्रिसामयिक पुद्गल स्कन्ध है या चतु सामयिक, ऐसा कथन कालपिण्ड है ।
इस संदर्भ में ग्रंथकार ने स्वयं एक प्रश्न उपस्थित किया है कि मूर्त्त द्रव्यों में परस्पर अनुवेध और संख्या- - बाहुल्य संभव है लेकिन क्षेत्र और काल का अनुवेध - मिलन संभव नहीं है, क्षेत्र अकृत्रिम है, उसके प्रदेश विविक्त रूप से अवस्थित हैं अतः आकाश-प्रदेशों का मिलन संभव नहीं है। काल में भी अतीत का समय नष्ट हो गया, भविष्य का उत्पन्न नहीं हुआ, वर्तमान में केवल एक समय विद्यमान है अतः काल में परस्पर अनुवेध और संख्या - बाहुल्य असंभव है। इसका उत्तर देते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि आकाश के सारे प्रदेश नैरन्तर्य रूप से वैसे ही सम्बद्ध रहते हैं, जैसे बादर निष्पादित चार स्कन्ध । क्षेत्र प्रदेशों में भी संख्या का बाहुल्य रहता है इसलिए क्षेत्र के लिए पिण्ड शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। काल वर्तमान क्षणवर्ती होता है। उसके पूर्वापर समय आपस में नहीं मिलते' लेकिन बुद्धि से कल्पित काल में संख्या- बाहुल्य संभव है अतः काल का भी पिण्ड संभव है। परिणामी और अन्वयी होने के कारण वर्तमान समय के साथ बुद्धिकल्पित अनुवेध संभव है। टीकाकार के अनुसार धर्म संग्रहणी टीका में इसका विस्तार से वर्णन है अतः यहां व्याख्या नहीं की गई है।
निक्षेप माध्यम से भाषा विज्ञान का वर्णन भी निर्युक्तिकार ने यत्र-तत्र कर दिया है । पिण्ड शब्द प्रसंग में नाम निक्षेप में नाम के चार प्रकार बताए गए हैं। टिप्पण में देने के बावजूद महत्त्वपूर्ण होने के कारण यहां विस्तार से उसका वर्णन किया जा रहा है
गौणनाम - गुण, क्रिया और द्रव्य के अनुरूप किसी का नाम रखना, जैसे- शक्तिसम्पन्न का महावीर नाम रखना, गाय का नाम गोत्व के आधार पर नहीं, अपितु गमन क्रिया के आधार पर है । द्रव्य नाम व्युत्पत्ति के आधार पर होता है, जैसे- श्रृंगी, दंती, दण्डी आदि ।
२. पिनि ४१, ४२, मवृ प. २२-२४ ।
१. मवृ प. २३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org