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पिंड नियुक्ति
आचारविषयक ग्रंथ होने के कारण बाद में यह मूलसूत्र के रूप में प्रतिष्ठित हो गया । पिण्ड सम्बन्धी वर्णन होने से कहीं-कहीं इसकी गणना छेदसूत्रों में भी होती है ।"
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ग्रंथ के प्रारम्भ में नियुक्तिकार ने संग्रह गाथा के माध्यम से भिक्षा सम्बन्धी दोषों को आठ भेदों में विभक्त कर दिया है। अवान्तर अनेक विषयों का वर्णन होने पर भी नियुक्तिकार ने क्रमशः इन आठ द्वारों का वर्णन किया है। ग्रंथ का नाम पिण्डनिर्युक्ति है इसलिए प्रारम्भ में ग्रंथकार ने पिण्ड शब्द की विस्तार से व्याख्या की है । पिण्ड के नौ भेदों की व्याख्या में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पिण्ड मनुष्य के लिए किस रूप में उपयोगी है, इसका सुंदर वर्णन किया है। यह सारा वर्णन आयुर्वेद और चिकित्सा की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। प्राचीनकाल में वस्त्र धोने से पूर्व साधु सात दिन या तीन दिन तक विश्रमणा-विधि करते थे, यद्यपि यह विधि आज कृतकृत्य हो गई है, फिर भी उस समय के सूक्ष्म अहिंसक साध्वाचार का महत्त्वपूर्ण संकेत देती है।
भावपिण्ड के अनेक प्रकार अध्यात्म के विविध विकल्पों को प्रस्तुत करने वाले हैं। पिण्ड शब्द की सांगोपांग व्याख्या के पश्चात् नियुक्तिकार ने एषणा और उद्गम शब्द की निक्षेपपरक व्याख्या की है। फिर विस्तार से उद्गम के आधाकर्म आदि १६ दोषों का विवेचन प्रस्तुत किया है। उद्गम के १६ दोषों में आधाकर्म अधिक सावद्य है अतः इसका अनेक द्वारों के माध्यम से सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत किया गया है। तत्पश्चात् उद्गम दोष के विशोधिकोटि और अविशोधिकोटि- इन दो भेदों में किस दोष का किसमें समावेश होता है, इसका संकेत दिया गया है।
उद्गम के बाद उत्पादना के निक्षेप तथा उसके धात्री आदि १६ दोषों की चर्चा है । नियुक्तिकार ने दोषों की व्याख्या के साथ-साथ उस समय की संस्कृति और सभ्यता का चित्रण भी प्रस्तुत किया है, जैसेकिस धात्री का बालक पर क्या असर होता है तथा उस समय कितने प्रकार की धाय होती थीं, उनका क्या कार्य होता था आदि । उत्पादन के १६ दोषों की व्याख्या के बाद एषणा के शंकित आदि दस दोषों का विवेचन है ।
अंत में ग्रासैषणा के संयोजना आदि पांच दोषों का विस्तृत वर्णन है । उद्गम और उत्पादना के दोषों से रहित शुद्ध आहार ग्रहण करने पर भी साधु परिभोग के समय कर्म-बंधन कर सकता है। ग्रासैषणा के अन्तर्गत प्रमाण-दोष का वर्णन आयुर्वेद की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, साथ ही ऋतु के अनुसार आहार की मात्रा का वर्णन भी वैज्ञानिक दृष्टि से निरूपित है। हिताहार और मिताहार की कसौटियां स्वास्थ्यविज्ञान की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
नियुक्तिकार ने भिक्षा सम्बन्धी दोषों को स्पष्ट करने में प्रायः कथानकों का संकेत किया है,
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग - २ पृ. १५९ ।
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